न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’- किसी समस्या के समाधान का एक रास्ता यह भी हो सकता है. लेकिन, यह समझदारी भरा रास्ता नहीं है. हालिया बैंक घोटालों के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों की राय है कि फर्जीवाड़ा न तो किसी एक सरकारी बैंक तक सीमित है, न ही कोई एक दफे की बात है.
उनके मुताबिक, चूंकि सरकारी बैंक फर्जीवाड़ा नहीं रोक पा रहे हैं, तो इसका उपचार यही है कि उनका निजीकरण कर देना चाहिए. बैंकों के निजीकरण के पक्ष में जोर पकड़ती दलीलों के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक सारगर्भित बात कही है कि बैंकों का निजीकरण समस्या का कोई समाधान नहीं है. ऐसा करना एक तो व्यावहारिक तौर पर बहुत कठिन है, दूसरे निजी क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं के फर्जीवाड़े से बचे होने के कोई प्रमाण नहीं हैं. वित्त मंत्री का बयान सामयिक और सराहनीय है.
सरकारी बैंकों के निजीकरण का तर्क आगे और तूल पकड़ेगा, तो बैंकों के करोड़ों आम ग्राहकों के मन में अपनी जमा पूंजी को लेकर शंका पैदा होगी, जो साख के आधार पर चलने वाले वित्तीय बाजार के लिए घातक साबित हो सकती है. निजीकरण का तर्क देने वाले टिप्पणीकार निकट अतीत में झांककर देखें, तो उन्हें सरकारी बैंकों के होने का औचित्य साफ तौर पर देख पाने में मदद मिलेगी.
साल 2008 की मंदी की मार से विकसित मुल्कों की अर्थव्यवस्थाएं कराह रही थीं, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था मंदी से बेअसर रही. उस वक्त अर्थशास्त्रियों ने ध्यान दिलाया था कि देश के कुल बैंकिंग कारोबार का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा सरकारी बैंकों के पास है और सरकारी बैंकों ने पूंजी से जुड़े जोखिम के मामले में चूंकि बढ़-चढ़कर पेशकदमी न करते हुए संयम से काम लिया था, इस कारण भारत वैश्विक आर्थिक मंदी की मार से एक हद तक बचा रहा. दूसरी बात बट्टे खाते की रकम के बढ़वार की है.
बेशक सरकारी बैंकों पर फंसे हुए कर्जे का बोझ ज्यादा है, पर निजी बैंक इस मामले में पीछे नहीं हैं. रिजर्व बैंक के अनुसार, सरकारी और निजी बैंकों ने आपसी सहमति से बीते साढ़े पांच सालों (2012-13 से 2017 के सितंबर तक) में 3.67 लाख करोड़ की पूंजी बट्टे खाते में गयी. इसमें 27 सरकारी क्षेत्र के बैंक हैं तो 22 निजी क्षेत्र के. विशेषज्ञों का कहना है कि पीएनबी घोटाले में गड़बड़ी निगरानी और अंकुश के तंत्र में हुई है, शीर्ष प्रबंधन ने अपेक्षित सतर्कता नहीं बरती.
अंदरूनी तौर पर बैंक का बोर्ड और निगरानी की बाहरी संस्था के रूप में रिजर्व बैंक निगरानी की अपनी अपेक्षित भूमिका निभाने में नाकाम रहे. बैंकों में लेन-देन से संबंधित हिफाजती इंतजाम के बारे में बैजल समिति ने कुछ सिफारिशें की थीं.
इन सिफारिशों की रोशनी में बैंकों में प्रबंधन, नियमन और निगरानी की प्रणाली की खामियों को ठीक करने जरूरत है. सरकारी बैंकों का निजीकरण कहीं से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है.