II रविभूषण II
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
किसी भी अच्छे गीत, शायरी और कविता की बड़ी खूबी यह भी है कि उसकी कुछ पंक्तियां अपने को संदर्भ-मुक्त कर सर्वथा एक भिन्न संदर्भ से जुड़कर कहीं अधिक सार्थक और प्रासंगिक हो जाती हैं. कवि-दृष्टि से भिन्न एक भावुक-सहृदय दृष्टि, जिससे अर्थ-विस्तार संभव हो पाता है.
हिंदी फिल्मों के आरंभिक चार-पांच दशकों की अनेक गीत-पंक्तियां हमें नये अर्थोद्घाटन के लिए आमंत्रित करती हैं. नेहरू युग की एक फिल्म ‘मंजिल’ (1960) के गीतकार, गायक और संगीत निर्देशक दिवंगत हो चुके हैं. फिल्म मंजिल के निर्देशक मंदी बर्मन थे. देवानंद और नूतन अभिनीत ‘मंजिल’ के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी, गायक मन्ना डे (वास्तविक नाम प्रबोधचंद डे) और संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे. भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक गायन-शैली ‘ठुमरी’, जिसे अर्धशास्त्रीय गायन-कोटि में शामिल किया जाता है, हिंदी फिल्मों में 110 से अधिक संख्या में है.
अस्सी के दशक से हिंदी फिल्मों में ठुमरी कम गायी गयी है. ठुमरी में जो कुछ राग (खमाज, भैरवी, तिलक, कामोद, तिलंग, पीलू, झिंझौटी, जोगिया) प्रयुक्त होते हैं, उनमें भैरवी में हिंदी फिल्मों में कई ठुमरी गायी गयी है. यह सिलसिला संभवत: केएल सहगल की आवाज में ‘बाबुल मोरा नैहर छूटल जाये’ (स्ट्रीट सिंगर, 1934) से शुरू होता है.
मंजिल फिल्म की ठुमरी ‘हटाे, काहे को झूठी बनाओ बतियां’ राग भैरवी में है. फिल्म का संदर्भ शृंगारिक है. संदर्भ प्रेम का है.
ठुमरी अधिकांशत: शृंगार रस प्रधान होती है, पर भक्ति-भावना की ठुमरी संख्या भी कम नहीं है. नवाब वाजिद अली शाह के समय जन्मी और विकसित हुई यह गायन-शैली आज भी अपना जादू कायम रखे हुए है, जबकि अब न पहले जैसे गायक-गायिकाएं हैं और न वे वाद्य, जिनका अपने समय में रोब-दाब था. अब पारंपरिक वाद्य- हारमोनियम, तबला, सारंगी, ढोलक के संग-साथ गिटार, ड्रम्स और वायलिन भी हैं. अब ठुमरी का पुरबिया, अवधिया और लखनवी रंग भी चटख नहीं है.
‘हटाे, काहे को झूठी बनाओ बतियां’ में नायिका की नायक के प्रति उलाहना है. नायक झूठा है, मिथ्याभाषी है. वह नायिका के प्रति वफादार, जिम्मेदार नहीं है.
कहता कुछ है, करता कुछ है. उस पर विश्वास करना कठिन है. वह अविश्वासी, धोखेबाज और चरित्रहीन है- ‘गैर का साथ है/ और रोज मुलाकात है/ प्यार है उसके लिए/ और हमसे फकत बातें हैं/ अरे जाओ, हटो/ काहे को झूठी बनाओ बतियां.’ नायिका अपने नायक के चाल-चलन को तुरंत पहचान लेती है- ‘ये उड़ी-उड़ी सी रंगत/ ये खुले-खुले से गेसू/ तेरी सुबह कह रही है/ तेरी रात का फसाना.’ वह जानती है कि नायक का प्यार किसी और से है- ‘देखो जी, किसी का प्यार हमसे ना छुपाओ/ सब हमें पता है, प्यारे नैन ना झुकाओ.’
सन् 1960 में नेहरू जीवित थे. उनका जादू उतरने लगा था. नेताओं की तमाम बातें हमारे सामने हैं. ‘डॉक्यूमेंट्स’ मौजूद हैं. राजनीतिक दलों के घोषणापत्र हैं.
समय-समय पर हमारे नेताओं ने हमें जितनी बातें कही हैं, वे प्रमाण हैं कि उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ से लेकर ‘अच्छे दिन’ के वादे किये. नायिका ‘झूठी बतियां’ तुरंत पकड़ लेती है, पर मतदाता पांच वर्ष बाद भी नहीं पकड़ पाता. विश्वविद्यालयों के समाज-विज्ञान विभागों में भारतीय राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर शोध-कार्य नहीं होता. नेताओं के भाषणों, उनकी बातों पर सिलसिलेवार ढंग से विचार नहीं होता.
जनता अपने नेता से कभी यह नहीं पूछती कि वह हमेशा झूठी बातें क्यों बोलता है. उसे झूठ से इतना इश्क क्यों है? सामान्य जनता और मतदाताओं से नेताओं और उनके राजनीतिक दलों का नाता पांच साला है. अब सत्तर वर्ष बाद जनता यह समझ रही है कि नेता का उससे प्यार नहीं है. स्वतंत्र भारत का संसदीय लोकतंत्र यह प्रमाणित कर रहा है कि ‘जन-प्रतिनिधि’ आज अधिक ‘धन-प्रतिनिधि’ है. धन प्रतिनिधि से हमारा आशय संपत्तिशालियों और पूंजीपतियों के प्रतिनिधि से है. बेशक, यह पूर्णत: सच नहीं, पर अधिकांशत: सच है.
अगर राजनीतिक दलों ने ‘जो कहा, वह किया’ का निर्वाह किया होता, तो देश की आज जैसी हालत नहीं होती. नेताओं की जनता से केवल बातें हैं, उनका प्यार उससे नहीं है. नेताओं का संग-साथ ‘अंतिम जन’ से नहीं है, जो गांधी की चिंता में सैदव रहा है. प्यार किसी और से, मत-प्राप्ति जनता से! इससे अधिक फर्क नहीं पड़ता कि राजनीतिक दल कौन हैं, पर वर्तमान में शासन जिनका होता है, उसकी जिम्मेदारी बड़ी है.
आज सोशल मीडिया पर मोदी द्वारा जनता से किये गये वादों की एक बड़ी सूची मौजूद है- रोजगार देने, 15 लाख देने, भ्रष्टाचार मिटाने, अच्छे दिन लाने, किसानों का कर्ज माफ करने, महंगाई दूर करने, चौकीदारी करने और प्रधान सेवक बनने की बात. दलों की आपसी नूरा-कुश्ती इस व्यवस्था को कायम रखने के लिए है… राजनीतिक दलों या नेताओं द्वारा एक-दूसरे पर दोषारोपण कर चुनाव जीता जा सकता है, जनता की मुश्किलें हल नहीं की जा सकतीं. जनता हर बार झूठों को सच मान लेती है.
फिल्म के गीत में नायिका सब समझती है, पर स्वतंत्र भारत में हमने झूठ को ही सच समझ लिया है. एक व्यक्ति से हम सच कह सकते हैं, पर सच की ताकत सब नहीं स्वीकार सकते. इसीलिए झूठ को सच बनाया जाता है. अभी भारत की जनता अधिक समझदार नहीं है, नहीं तो साफ कहती- ‘हटो, काहे को झूठी बनाओ बतियां.’