दिल्ली प्रकरण के संदर्भ में प्रधान संपादक का आलेख : नौकरशाही व राजनेताओं के रिश्ते

II आशुतोष चतुर्वेदी II प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ हाल में हुई कथित मारपीट का मामला सुर्खियों में है. मुख्य सचिव किसी भी राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी होता है और उसके साथ मारपीट चिंता का विषय है. यह घटना अफसरशाही और राजनेताओं के संबंधों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 26, 2018 7:11 AM
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II आशुतोष चतुर्वेदी II
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ हाल में हुई कथित मारपीट का मामला सुर्खियों में है. मुख्य सचिव किसी भी राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी होता है और उसके साथ मारपीट चिंता का विषय है. यह घटना अफसरशाही और राजनेताओं के संबंधों पर भी सवाल खड़ा करती है.
देखने में आ रहा है कि कई राज्यों अथवा मंत्रालयों में ब्यूरोक्रेसी के साथ राजनेताओं के संबंध तनावपूर्ण रहते हैं. इसकी कई वजहें हो सकती हैं. एक, ब्यूरोक्रेट ईमानदार है और राजनेता को कानून सम्मत रास्ता बता रहा होता है. लेकिन, नेता को यह रास्ता पसंद नहीं आता. हालांकि कुछेक मामलों में तो इसका उल्टा भी है. दोनों के संबंध इतने प्रगाढ़ हो चुके होते हैं कि नौकरशाह निरंकुश हो जाता है. इस गठजोड़ का नतीजा यह होता है कि वह चुनी हुई सरकार पर हावी हो जाता है, साथ ही साथ राजनेताओं को भ्रष्टाचार के नित नये तरीके सुझा रहा होता है. ये सारी स्थितियां चिंताजनक हैं.
दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ घटित घटना पर नजर डालते हैं. मुख्य सचिव द्वारा दर्ज एफआइआर के मुताबिक रात 12 बजे मीटिंग में आने के लिए उन पर दबाव डाला गया था. वहां उनको अपशब्द बोले गये और मारपीट भी की गयी. एक विधायक ने कहा कि वह उन्हें कमरे से बाहर नहीं निकलने देगा और जातिसूचक शब्द कहने का आरोप लगा देगा. मुख्य सचिव ने आम आदमी पार्टी के दो विधायकों पर उनके साथ मारपीट का आरोप लगाते हुए शिकायत की है कि कमरे में मौजूद किसी भी शख्स ने उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की.
गंभीर बात यह है कि यह घटना मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर पर घटित हुई. दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की ओर से कहा गया कि मुख्य सचिव को राशन पर चर्चा के लिए विधायकों की बैठक में मुख्यमंत्री आवास बुलाया गया था. मुख्य सचिव ने सवालों के उत्तर देने से इनकार कर दिया और कहा कि वह विधायकों और मुख्यमंत्री के प्रति नहीं, बल्कि केवल उपराज्यपाल के प्रति जवाबदेह हैं.
उन्होंने कुछ विधायकों के प्रति खराब भाषा का इस्तेमाल किया और सवालों का उत्तर दिये बिना वहां से चले गये. मारपीट की इस घटना के विरोध में एकजुट सभी अधिकारियों ने पहले तो काम बंद कर दिया था और अब वे सरकार के मंत्रियों के साथ सिर्फ लिखित संवाद कर रहे हैं. अधिकारियों और नेताओं के बीच मौखिक बातचीत बंद है. अफसरों की मांग है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल इस मामले में खेद जतायें, क्योंकि उनके घर पर यह घटना घटित हुई. अधिकारियों और दिल्ली सरकार के बीच चल रही इस खींचतान से दिल्ली की जनता का नुकसान होना लाजिमी है. आप अंदाज लगा सकते हैं कि इस समय दिल्ली में सरकारी कामकाज की क्या स्थिति होगी.
यह घटना नौकरशाहों और राजनेताओं के संबंधों पर तत्काल ध्यान देने की ओर इशारा करती है. हालांकि नौकरशाही को लेकर आम राय बहुत सकारात्मक नहीं है. लेकिन, यह जान लीजिए देश का प्रशासन चलाने की जिम्मेदारी इन्हीं पर है. नेता तो पांच साल के लिए चुन कर आते हैं और चले जाते हैं. लेकिन एक आइएएस अपने पूरे कार्यकाल के दौरान विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहता है और पूरी व्यवस्था को चलाता है.
नौकरशाही शब्द का जिक्र आते ही दो तरह की छवियां उभरती हैं -एक नकारात्मक और दूसरी सकारात्मक. नकारात्मक से आशय है- लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अहंकारी प्रकृति का शख्स. लेकिन नौकरशाहों की एक दूसरी छवि भी है. इन्हें प्रगति, सामाजिक परिवर्तन और कानून व्यवस्था के रखवाले के रूप में भी जाना जाता है. एक अनुमान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों की लगभग 100 कल्याणकारी योजनाओं को चलाने की जिम्मेदारी एक डीसी/डीएम की होती है. इससे अंदाज लगा सकते हैं कि किसी भी सरकार के लिए वे कितनी अहम कड़ी हैं.
अंग्रेजी शासकों के दौर में नौकरशाहों को निरंकुश शासन के लिए इस्तेमाल किया जाता था. वे कर वसूली करने वाले और सरकार के आदेशों को लागू कराने वाले के रूप में जाने जाते थे. आज भी जिला प्रशासकों को आम बोलचाल में कलेक्टर ही कहा जाता है. भारत में भी प्रशासन इन्हीं नौकरशाहों के इर्द–गिर्द घूमता है. कोई भी देश अगर ठीक-ठाक ढंग से चल रहा है, तो जान लीजिए कि उसके पास एक सुदृढ़ और सुव्यवस्थित नौकरशाही की व्यवस्था है. हमारे देश में भी अशोक खेमका जैसे अफसर हैं जो अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं.
हरियाणा कैडर का यह अधिकारी किसी भी व्यवस्था को रास नहीं आता. कुछ समय पहले अशोक खेमका ने रॉबर्ट वाड्रा के कथित भूमि सौदे उजागर किये थे जिसके बाद उनका कई बार ट्रांसफर किया गया. सत्ता बदल गयी, लेकिन अब भी वह व्यवस्था में फिट नहीं बैठ पाये हैं.
खेमका का 22 साल में 46 बार ट्रांसफर हुआ है. यानी औसतन साल में दो बार उनका तबादला हुआ, जबकि 2013 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार एक न्यूनतम कार्यकाल के बाद ही किसी अधिकारी का ट्रांसफर किया जा सकता है. यह भी देखने में आया कि अफसर सत्ता पर आसीन लोगों से इतना परेशान हो जाता है कि वह केंद्र में प्रतिनियुक्ति ले लेता है. मुंबई में अवैध निर्माण के खिलाफ अभियान चलाने के कारण खैरनार चर्चित हुए थे. किरण बेदी जब दिल्ली पुलिस की अधिकारी थीं तो बेहद चर्चित रही थीं.
उन्होंने ट्रैफिक व्यवस्था को सुचारु करने और अवैध वाहनों को हटाने के लिए पहली बार दिल्ली में क्रेन का इस्तेमाल किया था और लोग उन्हें क्रेन बेदी तक कहने लगे थे. लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों को ऐसे अफसर पसंद नहीं आते और उनके बार-बार तबादले हुए थे. देखने में आया है कि कई बार राजनेता नौकरशाहों पर अतर्कसंगत कार्य करने के लिए दबाव डालते हैं. कानूनों को लागू करने की बजाये उनको तोड़ने-मरोड़ने के लिए उनसे कहा जाता है.
लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि सभी नौकरशाह दूध के धुले हों. कुछ समय पहले 1976 बैच की यूपी कैडर की रि‍टायर्ड आइएएस अफसर प्रोमिला शंकर ने एक किताब लिखी- गोड्स ऑफ करप्शन यानी भ्रष्टाचार के भगवान. इसमें उन्होंने यूपी के राजनेताओं और नौकरशाही की मिलीभगत से भ्रष्टाचार को रेखांकित किया है. इस किताब ने सत्ता के गलियारों में हलचल मचा दी थी. उन्होंने इसमें बताया कि कैसे कुछ अधिकारी और मंत्री पूरी व्यवस्था को चलाते हैं.
कई ऐसे अधिकारी हैं, जिनके पास दर्जन भर विभागों के चार्ज होते हैं और ये मंत्री को भ्रष्टाचार के नये-नये तरीके सुझाते हैं और अपना भी स्वार्थ सिद्ध करते हैं. कुल मिलाकर नौकरशाहों और राजनेताओं दोनों के कार्य क्षेत्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हैं और दोनों से देश एवं राज्य के हित में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है.
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