जब-जब दायीं आंख फड़के

II अर्चना शर्मा II टिप्पणीकार अक्सर लोगों को कहते सुना है कि आंख का फड़कना हल्के में ना लेना, आंख फड़कने पर अच्छा या बुरा संयोग, कुछ होता जरूर है. अब इसे अंधविश्वास मानें या फिर मनोवैज्ञानिक कारणों की दुहाई दें, मन में आंख फड़कने पर खटका सा जरूर होता है. पिछले हफ्ते मैं अपने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 27, 2018 7:05 AM
II अर्चना शर्मा II
टिप्पणीकार
अक्सर लोगों को कहते सुना है कि आंख का फड़कना हल्के में ना लेना, आंख फड़कने पर अच्छा या बुरा संयोग, कुछ होता जरूर है. अब इसे अंधविश्वास मानें या फिर मनोवैज्ञानिक कारणों की दुहाई दें, मन में आंख फड़कने पर खटका सा जरूर होता है.
पिछले हफ्ते मैं अपने एक रिश्तेदार से मिलने अस्पताल गयी. आइसीयू में पहुंचने के पीछे क्या वजह रही, यह पूछने पर उन्होंने सारा कसूर दायीं आंख फड़कने पर मढ़ दिया. बड़े ही रोचक अंदाज में उन्होंने कहा, जब-जब मेरी दायीं आंख फड़के, तब-तब मेरा दिल धड़के… अस्पताल के शांत माहौल में हंसी के ठहाके गूंज पड़े. उन्होंने कहा, पुरुषों की दायीं आंख फड़कने पर कुछ अच्छा होने की बात सुनी थी, पर उनके साथ तो बिल्कुल उलटा हुआ है. पहली बार जब आंख फड़की, तो धड़ाम से गिर पड़े और हाथ की हड्डी टूट गयी. इस दफा आंख फड़की, तो अस्पताल में ला पटका, वह भी आइसीयू में.
अस्पताल के बाहर चिंतित, भयभीत घर वाले और भीतर बीमारी के साथ-साथ अंदर के माहौल से जूझते हमारे ये रिश्तेदार. माघ महीने में हल्की सी हवा से कैसे पत्ते कांप उठते हैं, वैसे ही अंदर आइसीयू में जरा सी आवाज पर मन कांप उठता था. कुछ जरूरी टेस्ट और दवाइयों के बाद इनकी स्थिति तो जल्द सामान्य हो गयी, पर मन अन्य लोगों की असामान्य परिस्थिति देख पल-प्रतिपल उद्वेलित होता रहा.
बगल के बेड पर एक मृतप्राय आदमी को भर्ती किया गया. मृत काया में कितनी सुई भकोस कर अनगिनत टेस्ट और तमाम उपकरणों को फिट कर सारा तामझाम चला. शरीर में कोई हरकत तो थी नहीं, और न कोई उम्मीद, कुछ समय बाद अपनी तसल्ली कर डॉक्टर, नर्स ड्यूटी कर चले गये. खुली आंखों से बगल में पड़ी लाश के साथ रात गुजारने पर कुछ वैसे ही मनोस्थिति थी, जैसे बचपन में होती थी. दूसरे दिन जब शाम को के घरवाले आकर लाश को लेकर गये, तब थोड़ा चैन पड़ा.
उसी बेड पर अगले दिन ऐसा व्यक्ति आया, जिसमें डॉक्टरों को कुछ उम्मीद और लंबे बिल की आशा थी. उसे वेंटिलेटर पर रखा गया. तीन दिन तक वेंटिलेटर का बोझ झेलते पेशेंट में न कोई हरकत न कोई स्पंदन. डॉक्टर और नर्स उम्मीद से भरपूर कि अभी हाथ हल्का सा हिला था. आइसीयू में एक अलग ही दुनिया होती है, शांत, उदास, गमगीन, यंत्रवत.
नाक के अंदर दवाइयों की ऐसी गंध घुसपैठ करती है, जो जीवनभर पीछा नहीं छोड़ती. हरे कपड़ों में मशीनी डॉक्टर, अटेंडेंट अनवरत गंभीर मुद्रा में. मुझे अपने क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल की याद आती है. वहां भी ऐसा बोझिल सन्नाटा पसरा रहता था कि ना जाने किस अंधेरे कोने से कौन आ दबोचे.
खैर! सही-सलामत निकल आने पर डॉक्टर, नर्सों का मन आभार प्रकट करता है और लंबे-चौड़े बिल को नजरअंदाज. पर, एकबारगी बेसाख्ता निकल ही पड़ता है- जब-जब दायीं आंख फड़के, तब-तब मेरा दिल धड़के…

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