चोटिल तो गणतंत्र होता है

II पवन के वर्मा II लेखक एवं पूर्व प्रशासक वर्ष 1950 में जब हमने अपना संविधान अंगीकार कर खुद को एक गणतंत्र घोषित किया, तो हमारी भावनाएं उचित स्थल पर स्थित थीं. पर, गणतंत्र की पिछली यात्रा में न मालूम कब-कहां हमारी भावनाएं ‘चोटिल’ हो उठीं. किसी ने भी और सभी ने यह मान लिया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 27, 2018 7:10 AM

II पवन के वर्मा II

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

वर्ष 1950 में जब हमने अपना संविधान अंगीकार कर खुद को एक गणतंत्र घोषित किया, तो हमारी भावनाएं उचित स्थल पर स्थित थीं. पर, गणतंत्र की पिछली यात्रा में न मालूम कब-कहां हमारी भावनाएं ‘चोटिल’ हो उठीं.

किसी ने भी और सभी ने यह मान लिया है कि उन्हें किसी के भी और सभी के कृत्यों से ‘चोटिल’ हो जाने का अधिकार हासिल है. यदि वक्त रहते चेत न गये, तो हम इस यकीन के आधार पर तेजी से चोटिल भावनाओं के गणतंत्र में तब्दील होते चले जायेंगे कि किसी व्यक्ति अथवा समूह को जो कुछ भी नापसंद है, वह संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता के दुरुपयोग की आड़ में उन्हें इसका अधिकार देता है कि वे उसके प्रति मनमाने ढंग से विरोध व्यक्त कर सकें.

चोटिल भावनाओं के ऐसे मामलों की इस शृंखला की ताजातरीन कड़ी निकट भविष्य में ही रिलीज होनेवाली मलयाली फिल्म ‘ओरुअडार लव’ में प्रिया प्रकाश वरियर द्वारा गया एक गाना है. जब मैंने इस फिल्म से इस गाने की क्लिपिंग देखी, तो पूरी तरह मुग्ध रह गया.

मुझे ऐसा महसूस हुआ कि यह कैशोर्य प्रेम की एक मोहक अदाकारी है, जिसमें ऐंद्रिकता और मासूमियत का वही सटीक सम्मिश्रण है, उस उम्र में प्रेम और सम्मोहन के इस एहसास से गुजर चुके लोग जिसकी गवाही देते न थकेंगे.

दरअसल, यह एक लोकगीत है, जिसे 1978 में एक मुस्लिम ने ही लिखा था और पहली बार एक अन्य मुस्लिम ने ही उसे गाया भी था, पर अब कुछ मुस्लिम संगठनों ने इस गीत पर एतराज जताते हुए यह कहा कि यह गीत हमारी धार्मिक भावनाओं पर ‘चोट’ पहुंचा रहा है. यही नहीं, इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक तथा प्रिया प्रकाश को परेशान करने हेतु उन्होंने तेलंगाना और महाराष्ट्र में एक साथ कई आपराधिक मामले भी दायर कर दिये. हमें इस हेतु सुप्रीम कोर्ट का शुक्रगुजार होना ही चाहिए कि उसने प्रिया की याचिका पर इन सभी मामलों को स्थगित कर दिया.

भावनाओं पर ‘चोट’ ले लेने पर आबादी के किसी एक ही समूह या धर्म का एकाधिकार नहीं रहा है. किसी को भी राष्ट्रीय परिदृश्य के सभी पहलुओं में ऐसे चोटिल ब्रिगेड के दीदार हो जायेंगे. पिछले ही वर्ष के 31 दिसंबर को नव वर्ष की पूर्व संध्या पर अदाकारा सनी लियोन को बेंगलुरु के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेना था, पर कर्नाटक के एक संगठन ने कहा कि यदि सनी साड़ी पहनकर भारतीय संस्कृति के अनुरूप आएं, तब तो ठीक, पर यदि वह कुछ और पहनकर आती हैं, तो उनके संगठन के सदस्य आत्महत्या कर लेंगे. ऐसी रिपोर्ट है कि कर्नाटक पुलिस ने इस कार्यक्रम की सुरक्षा सुनिश्चित करने में असमर्थता प्रकट की, जिसके बाद इसे स्थगित कर दिया गया.

बेंगलुरु में महसूसी गयी ‘नैतिकता’ पर पहुंचती ऐसी चोट देश के हर हिस्से में महसूस की जा रही है, जिनमें 14 फरवरी को वेलेंटाइन दिवस के अवसर पर यूपी में प्रदर्शित विरोध सर्वाधिक प्रमुख है. इस दिन युवा जोड़ों को देखे जाने पर उपद्रवियों द्वारा इसे भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बताते हुए हुल्लड़बाजी करना इतना बेतुका है कि यह हंसने की चीज है या रोने की, यह बता पाना मेरे लिए मुश्किल है.

क्या इन लोगों ने कभी वात्स्यायन का नाम नहीं सुना और क्या उन्हें नहीं पता कि वे किस कालखंड में रहते थे? क्या उन्हें राधा-कृष्ण की प्रेम गाथाओं अथवा जयदेव द्वारा ‘गीतगोविंद’ में उनके कामोद्दीपक चित्रण की जानकारी भी नहीं?

क्या उन्होंने चंडीदास, विद्यापति, बिहारी, केशवदास, मीरा, अंडाल जैसे महान कवि-कवयित्रियों द्वारा राधा-कृष्ण की प्रेमलीलाओं के सरस शृंगारिक विवरणों के विषय में भी कुछ नहीं सुना? इन ‘नैतिक’ समूहों को पहुंचती ‘चोट’ प्रायः भारतीय संस्कृति के संबंध में उनकी अतल अनभिज्ञता की सीधी समानुपाती होती है.

कुछ ही दिनों पहले अंततः मैंने फिल्म पद्मावत को देखने का वक्त निकाल ही लिया. मैं अपनी पूरी कोशिश के बावजूद यह बिल्कुल ही नहीं समझ सका कि आखिर क्यों करणी सेना इस फिल्म की इतनी उग्र विरोधी थी? सच तो यह है कि इस फिल्म ने राजपूत परंपराओं तथा संस्कृति की विरासत का गौरव-गान करने में कुछ भी उठा न रखा है.

इस फिल्म के विरोध में धमकियां, हिंसा तथा दुर्व्यवहार का इस्तेमाल करनेवाले इन लोगों में से अधिकतर ने उसे देखा तक नहीं था. एक बार फिर जब सुप्रीम कोर्ट ने दृढ़तापूर्वक हस्तक्षेप किया, तब कहीं जाकर सद्बुद्धि की जीत हुई.

एक परिपक्व लोकतांत्रिक गणतंत्र में नागरिकों को अपना मत रखने तथा उसे अभिव्यक्त करने का अधिकार होता है, जिसकी रक्षा संविधान द्वारा की जाती है. पर, न तो संविधान और न ही बुनियादी शराफत किसी को यह अधिकार देती है कि वह जब जी चाहे सदैव ‘चोटिल’ रहे.

अपने देश में ऐसे चोटिल जनों की तादाद खौफनाक ढंग से बढ़ रही है और किसको कौन-सी चीज चोटिल कर डालेगी, इसकी कोई सीमा नजर नहीं आती. इस तरह तो जिसे वस्तुतः चोट पहुंचेगी, वह विकल्प के चयन और अभिव्यक्ति की आजादी ही होगी, जिसकी गारंटी हमारा गणतंत्र अपने प्रत्येक नागरिक को देता है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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