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संस्कृतियों के समावेश का उत्सव
II मनींद्र नाथ ठाकुर II एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com भारतीय समाज का इतिहास इतना पुराना है कि पता नहीं कब कौन-सा त्योहार किस कारण से शुरू हुआ और धीरे-धीरे किस ओर बढ़ गया. समाजशास्त्रियों को इन त्योहारों का विश्लेषण करना चाहिए, क्योंकि इससे समाज के स्वरूप का, उसकी प्रकृति का और उसमें बदलाव का ज्ञान […]
II मनींद्र नाथ ठाकुर II
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
भारतीय समाज का इतिहास इतना पुराना है कि पता नहीं कब कौन-सा त्योहार किस कारण से शुरू हुआ और धीरे-धीरे किस ओर बढ़ गया. समाजशास्त्रियों को इन त्योहारों का विश्लेषण करना चाहिए, क्योंकि इससे समाज के स्वरूप का, उसकी प्रकृति का और उसमें बदलाव का ज्ञान हो सकता है. होली का मौसम है और हमारा समाज कठिनाइयों के दौर से गुजर रहा है. पिछले दिनों मुंबई में किसी विवाह समारोह में बचपन के दोस्तों से मुलाकात हुई. उनमें से कई अब बड़े प्रशासनिक पद पर पहुंच गये हैं.
सभी लगभग एक मत से थे कि हमारा समाज गृह युद्ध की संभावनाओं से गुजर रहा है. मुझे इस बात पर कुछ विश्वास नहीं हुआ, लेकिन मुंबई से दूर जब चंडीगढ़ के अकादमिक जगत के लोग भी मुझे यही कहने लगे, तब मुझे लगा कि यह समझना जरूरी है कि आखिर यह समाज इतने दिनों तक अनेक विभिन्नताओं को समेटे कैसे रहा? और आगे इसकी क्या संभावनाएं हैं?
होली के विश्लेषण के माध्यम से ही इसे समझने की कोशिश करने लगा. हर समाज अनेक वर्गों, संप्रदायों, भाषा समूहों और अनेकों ऐसे ही आधारों पर बंटा रहता है.
उनमें तनाव भी बना रहता है. लेकिन, सामज इन तनावों का उपाय भी करता है. प्रसिद्ध चिंतक अंतोनियो ग्राम्शी मानते हैं कि धर्म का बड़ा काम यह भी होता है कि इन विभाजनों के बावजूद समाज को एक-साथ इकट्ठा होने का मौका दे, ताकि ये अंतर समाज को तोड़ ही न दें. होली को देखकर तो यही लगता है कि शायद उनका मानना ठीक था. मैंने अपने ही गांव में देखा है कि पचास के दशक में मध्य बिहार से कोयरी जाति के लोग आकर यहां बसे.
उन्होंने अपनी महंगी जमीन बेचकर यहां ज्यादा जमीन कम कीमत पर खरीद ली. उत्तर बिहार के इस गांव की संस्कृति उनसे काफी अलग थी. गांव में तनाव का माहौल था. लेकिन, कुछ ही दिन में लोग उन्हें खास तरह का होली गाने के लिए जानने लगे. मुझे अभी भी याद है- लंबी मुछों वाला एक आदमी अपनी टोली लेकर द्वार-द्वार जाता था और ‘रे मडवा तोर बड़-बड़ गुण छौ रे मडवा’.
इस गाने को सुनने के लिए बूढ़े, बच्चे, औरतें सब जमा हो जाया करते थे. मडवा उनके अपने गांव की फसल थी. वह हमारे यहां नहीं होती थी, उनकी यादें, उनका भाव उस गाने को लोगों के मन में उतार देता था. और धीरे-धीरे दो संस्कृतियां एक-दूसरे में समाहित हो गयीं.
ऐसी ही प्रक्रिया तब भी हुई होगी, जब कृष्ण ने अपनी मां के सुझाव पर राधा को अपने रंग में रंगने के लिए होली खेली होगी. तब भी शायद समाज में स्त्री-पुरुष के बीच अलगाव को कम किया गया होगा.
हाल तक गांव में जब लड़के कृष्ण और राधा बनकर मुहल्ले -मुहल्ले गाते हुए घूमते थे कि ‘राधा हे खेली ला रंगरेलिया’ तो शायद उस अलगाव के खिलाफ एक वैचारिक आंदोलन का भाव होता होगा.
होली किसी धर्म का पर्व होने के बदले एक सांस्कृतिक पर्व ज्यादा है. बल्कि शायद एशियाई समाज का वह तकनीक है, जिससे इसमें बहुत सी संस्कृतियां समा सकीं. जिस हिंदू-मुस्लिम को एक-दूसरे के विरोधी के रूप में परोसा जा रहा है, उनके बीच भी होली ने कमाल का संबंध बनाया था.
अनेकों मुस्लिम कवियों ने होली पर नज्में और कविताएं लिखी हैं और कइयों ने कृष्ण भक्ति को एकदम डूबकर गाया है. अमीर खुसरो ने तेरहवीं शताब्दी में लिखा कि ‘मोहे अपने ही रंग में रंग दे ख्वाजा जी, मोहे सुहागन, रंग बसंती रंग दे….’ तो सत्रहवीं शताब्दी में बाबा बुल्लेशाह ने लिखा कि ‘होरी खेलूंगी कह बिस्मिलाह….’ जहांगीर, मुहम्मद शाह रंगीला, बहादुर शाह जफर और ऐसे कई बादशाहों ने धर्म की बंदिश से ऊपर उठकर होली को अपनाया. निश्चित रूप से यह सब केवल बादशाहों की चाहत मात्र से ही नहीं हो रहा होगा, बल्कि समाज में समन्वय की प्रक्रिया चल रही होगी. इसी का परिणाम था कि हाल तक मेरे गांव में होली गानेवाली टोलियां हिंदू-मुस्लिम घरों में अंतर नहीं करते थे. सारा गांव कई दिनों तक होली के रंग में डूबा रहता था.
होलिका और हिरण्यकश्यप की बहुचर्चित कहानी के अलावा एक और कहानी जुड़ी है होली के साथ. शिव का काम पर क्रोध करना और फिर उसे भस्म कर देना और अंत में काम की पत्नी रति के आग्रह पर उसे केवल भाव के रूप में वापस जीवित करना. यह कहानी बहुत प्रचलित तो नहीं है, लेकिन है काफी रोचक और इसके मनोविश्लेषण की जरूरत है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समाज के काम-संबंधी विकार के शोधन का भी एक महापर्व है. शायद यही कारण है कि होली का नाम आते ही गुदगुदी होती है लोगों के मन में. और यह याद दिलाती है कि प्रेम वासना नहीं है, बल्कि एक भाव है, शरीर से ऊपर उठ आत्मा तक पहुंचने का एक रास्ता है. इसी रास्ते का खोजी चैतन्य महाप्रभु का यह जन्मदिन भी है. यह सब केवल संयोग नहीं हो सकता है. निश्चित रूप से इसमें प्रकृति का कोई विधान निहित होगा.
लेकिन, अब यह सब कुछ बदल रहा है. गांव में अब ये टोलियां खत्म हो गयी हैं, प्रेम के वे गीत खत्म हो गये हैं, राधा से रंग खेलने का आग्रह खत्म हो गया है, प्रेम का भाव खत्म हो गया है, काम केवल वासना में बदलता जा रहा है, और संस्कृतियों के मिलन की प्रक्रियाएं खत्म हो रही हैं. तो क्या सचमुच हम गृह युद्ध की संभावनाओं से घिरते जा रहे हैं या फिर इस समाज में उससे निकल सकने की क्षमता बची है?
होली का सबसे मजेदार हिस्सा है- जोगीरा सा रा रा रा…… और यह हमारे समाज की आलोचनात्मक ऊर्जा का प्रतीक भी है. इसका प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ, इसके बारे में कुछ कहना कठिन है. लेकिन, लगता है कि शायद जोगी/योगी जैसी कोई एक खास तरह की शख्सियत है, जो बिना भय के समाज की आलोचना कर सकता है. और सवाल-जवाब के माध्यम से समाज के शक्ति-संपन्न लोगों की धज्जियां उड़ा सकता है.
और अंत में जोगीरा की बानगी देखें- खूब चकाचक जीडीपी बा चर्चा बा भरपूर/ चौराहा पर रोज सबेरे बिक जाला मजदूर जोगीरा सा रा रा रा रा..….
जोगीरा सवाल-जवाब देखें- केकर बाटे कोठी कटरा, के सींचे ला लॉन/ के नुक्कड़ पर रोज बिकाई केकर सस्ती जान, जोगीरा सा रा रा रा रा.
नेता जी के कोठी कटरा, अफसर सींचे लॉन/ नुक्कड़ पर मजदूर बिकाला, फांसी चढ़े किसान, जोगीरा सा रा रा रा रा…… यही है आज की स्थिति पर आम लोगों की समझ आम लोगों की भाषा में…
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