हिंसा स्वीकार्य नहीं
त्रिपुरा में चुनाव के चार दिन बाद भी जीत के जश्न में उन्मादी भीड़ हिंसा पर उतारू है. विचार के प्रतीक के रूप में खड़ी की गयीं मूर्तियां ढाही जा रही हैं और विचारधारा के आधार पर शत्रु मान लिये गये लोगों के साथ हिंसा की जा रही है. हिंसा के साथ एक मुश्किल यह […]
त्रिपुरा में चुनाव के चार दिन बाद भी जीत के जश्न में उन्मादी भीड़ हिंसा पर उतारू है. विचार के प्रतीक के रूप में खड़ी की गयीं मूर्तियां ढाही जा रही हैं और विचारधारा के आधार पर शत्रु मान लिये गये लोगों के साथ हिंसा की जा रही है.
हिंसा के साथ एक मुश्किल यह है कि वह किसी एक जगह ठहरी नहीं रहती. तीव्र संचार-सूचना के इस दौर में तो खैर हिंसा का कहीं सीमित रहना संभव ही नहीं. इस कड़ी में तमिलनाडु और बंगाल की घटनाओं को रखा जा सकता है. बहरहाल, राजनीतिक प्रतिशोध के उभरते हिंसक ज्वार के बीच उम्मीद की एक किरण नजर आ रही है.
सत्ता के शीर्ष से हिंसा के ऐसे संगठित व्यवहार की निंदा की गयी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मूर्तियों के तोड़-फोड़ और हिंसा के बरताव की निंदा करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह को मामले पर नजर रखने की हिदायत दी है. गृह मंत्री ने राज्य सरकारों को सामान्य स्थिति बहाल करने का निर्देश दिया है. हिंसा और उपद्रव को किसी भी तर्क से उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
कभी-कभी यह तर्क भी दिया जाता है कि किसी व्यवस्था में समाये अन्याय के खात्मे के लिए हिंसा का सहारा लेना एक सीमा तक उचित है. लेकिन, औचित्य की तुला पर यह तर्क भी कमजोर है, क्योंकि इसमें भविष्य की मनोवांछित कल्पना के आधार पर वर्तमान के हिंसक व्यवहार को सही कहने की कोशिश है.
आखिर यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि हिंसक गतिविधियों के सहारे जिस समाज या व्यवस्था की स्थापना की कोशिश की जा रही है, वह अपने साकार रूप में हर तरह से न्यायपूर्ण ही होगा? व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता को सबसे ऊंचा मूल्य माननेवाले लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो हिंसक व्यवहार के पक्ष में कोई अकाट्य तर्क ही नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि उद्देश्य न्यायपूर्ण समाज-रचना का हो या व्यक्तिगत धरातल पर अपनी क्षमताओं के विकास का- लोकतंत्र में हर प्रयास या गतिविधि विधि-सम्मत दायरे में ही होनी चाहिए.
चुनाव या राजनीतिक गतिविधियां विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों और विचारों के तार्किक टकराव के अवसर होते हैं. जनता अपनी समझ से अपने नुमाइंदों का चयन करती है. निर्वाचित दलों या प्रतिनिधियों का ध्यान बेहतर सरकार देने की दिशा में होना चाहिए.
विपक्ष का काम है कि वह सत्ता पक्ष की खामियों को चिह्नित करे तथा सकारात्मक आलोचना से सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में सुधार का दबाव बनाये. मौजूदा माहौल में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर मुस्तैदी दिखाने के साथ राजनीतिक मोर्चे पर एका कायम करने की भी जरूरत है.
सभी राजनीतिक दलों तथा नागरिक संस्थाओं को व्यापक हितों को सामने रखते हुए स्थिति को सामान्य बनाने की दिशा में प्रयत्न करना होगा और यह सीख लेनी होगी कि चुनावों को लोगों की राजनीतिक पसंद के इजहार का मौका मानकर लड़ा जाये, न कि आमने-सामने की एक खूनी जंग. ध्यान रहे, एक स्वस्थ लोकतंत्र के बिना विकास और समृद्धि की आकांक्षाएं भी अधूरी रह जायेंगी.