संभावनाओं की राजनीति

II मनींद्र नाथ ठाकुर II एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com भारतीय लोकतंत्र एक खास मुकाम से गुजर रहा है. राजनीतिक गलियारे में बहुत हलचल है. उपचुनाव के परिणामों से भविष्य का अनुमान लगाया जा रहा है. यहां तक कि किससे किसकी मुलाकात हुई, किसने किसे भोजन पर बुलाया, इसे भी आगामी चुनाव के लिए महत्वपूर्ण माना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 15, 2018 6:11 AM
II मनींद्र नाथ ठाकुर II
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
भारतीय लोकतंत्र एक खास मुकाम से गुजर रहा है. राजनीतिक गलियारे में बहुत हलचल है. उपचुनाव के परिणामों से भविष्य का अनुमान लगाया जा रहा है. यहां तक कि किससे किसकी मुलाकात हुई, किसने किसे भोजन पर बुलाया, इसे भी आगामी चुनाव के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है. खास कर उत्तर प्रदेश के नतीजे चौंकानेवाले हैं.
जिस माॅडल की बात करते हुए सत्तारूढ़ पार्टी अगले संसदीय चुनाव में अपनी जीत निश्चित बताती थी, जनता ने उसे ही धराशायी कर दिया है. लेकिन, संसदीय चुनाव की संभावनाओं को समझने के लिए हमें केवल उपचुनावों के नतीजे पर निर्भर नहीं करना चाहिए, बल्कि महत्वपूर्ण पार्टियों की नीतियों, उन नीतियों के प्रति जनता का रुझान और आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय महत्वपूर्ण वर्गों के समर्थन की संभावना पर विचार करना सही होगा.
सबसे पहले यदि हम सत्तारूढ़ दल को ही लें, तो इस दल की एक खासियत है कि इसके पास एक मजबूत संगठन है. पार्टी और संघ को मिलाकर जमीनी स्तर तक चुनाव संचालन के लिए इस तरह का संगठन किसी अन्य पार्टी के पास नहीं है.
खास बात यह भी है कि चुनाव हो या नहीं हो, इस पार्टी में अपने कार्यकर्ताओं को निरंतर व्यस्त रखने की अद्भुत क्षमता है. कभी उन्हें घर-घर जाकर लौह पुरुष की मूर्ति के लिए लोहा जमा करने का काम दिया जाता है, तो कभी दलित बस्तियों में खिचड़ी भोज के साथ अांबेडकर जयंती मनाने का काम.
ये पन्ना प्रभारी से लेकर राष्ट्रीय प्रभारी तक निरंतर गतिमान रहते हैं. मैंने अध्ययन के दौरान पाया है कि एक विधानसभा क्षेत्र में इस पार्टी के लगभग साढ़े चार सौ पदाधिकारी हैं और लगभग सभी सक्रिय हैं. अपने कार्यकर्ताओं को उनके काम के हिसाब से राजनीति में सफलता की संभावनाओं का विश्वास दिलाया है. सीधे फायदे देने के अलावा उन्हें अपरोक्ष तौर पर भी सामाजिक सम्मान की अनुभूति दिलाना इस दल की एक बड़ी खासियत है.
भाजपा की तुलना में कांग्रेस के पास कोई संगठन की शक्ति नहीं के बराबर है. बहुत से विश्लेषक यह समझते थे कि सत्ता से बाहर जाने पर शायद इनका ध्यान इधर जायेगा, लेकिन इसके आसार नहीं नजर आते हैं.
भाजपा से पन्ना प्रभारी बनाने का ज्ञान तो इसने सीख लिया है, लेकिन जमीनी स्तर पर कांग्रेस की बातों को जनता तक ले जाने का कोई तरीका नहीं है. कार्यकर्ता इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि काम करने से उन्हें कोई खास उन्नति मिल सकती है, बल्कि आप जिसे कांग्रेस संस्कृति कहते हैं, उसमें शीर्ष नेतृत्व से नजदीक होने के प्रयास में लोगों का मनोबल काफी कम होता है.
भाजपा की एक और खासियत है नेतृत्व की मजबूती. इस दल में भले ही तात्कालिक तौर पर कोई अधिनायकवादी व्यक्तित्व शीर्ष नेतृत्व पर हो, लेकिन यहां सत्ता के कई केंद्र हैं. कांग्रेस में सत्ता का केवल एक ही केंद्र होता है और इसलिए सारा दारोमदार एक ही व्यक्ति की सफलता या असफलता पर निर्भर रहता है.
पार्टियों की खूबियों और खामियों से अलग हटकर यदि समर्थन की बात करें, तो स्पष्ट है कि इस समय पूंजीपतियों का झुकाव भाजपा की ओर है. इस झुकाव का कारण क्या हो सकता है? भारतीय पूंजी को इस समय राज्य से बड़ी अपेक्षाएं हैं. उन्हें सस्ती जमीन, आसान मजदूर अधिनियम, काम टैक्स और अथाह पूंजी चाहिए. विदेशों में भी अपने फैलाव के लिए राज्य का समर्थन चाहिए. इसी तरह अंतरराष्ट्रीय पूंजी को भी भारत से बड़ी अपेक्षाएं हैं. लेकिन, इन सब की पूर्ति निश्चित रूप से जनहित में नहीं है. दोनों ही दल की अपनी सीमाएं हैं.
कांग्रेस का जनसमर्थन उसके कल्याणकारी योजनाओं पर निर्भर करता है और एक सीमा से आगे जाकर पूंजीपतियों के हित में काम करना उसके बस में नहीं है. कांग्रेस की तुलना में भाजपा के पास पूंजीपतियों के हित में काम करते हुए अपने समर्थन को बनाये रखने का एक अमोघ अस्त्र है धर्म और संस्कृत की राजनीति. भारतीय जनमानस की अनसुलझी परत है धर्म और जाति का भेद. राजनीतिक पार्टियां समय पड़ने पर आर्थिक मुद्दों से जनता को भटकाने के लिए इसका भरपूर उपयोग करती हैं.
भारतीय मतदाताओं ने समय-समय पर राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाया है.आज जब देश के कोने-कोने में विकास की चाहत जग गयी है और पार्टियों ने इसे समझा भी है, इसका उपयोग भी किया है, बहुत दिनों तक इन बेजान मुद्दों के सहारे उन्हें भटकाया जाना संभव नहीं है. इसलिए आज की राजनीति और भी ज्यादा संभावनाओं से भरी है. कोई भी पार्टी कभी भी उठ खड़ी होती है और अपने जनहितवादी होने का विश्वास जनता को दिलाने में सक्षम हो जाती है.
फिर जन-सैलाब उधर ही उमड़ पड़ता है. आपको याद होगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिलने के तुरंत बाद ही दिल्ली में उसकी मिट्टी पलीद हो गयी और आम आदमी पार्टी को एेतिहासिक जीत मिली. लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा को जबदस्त वोट मिला, लेकिन विधानसभा में हालत खराब हो गयी. पिछले कई उपचुनावों में भी ऐसे ही आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं.
इन सबका एक ही कारण है. सरकारों की आर्थिक नीतियां जनहित में कम होती हैं और पूंजी हित में ज्यादा. नेता सरकार से बाहर रहने पर जिन मुद्दों का विरोध करते हैं, सत्ता में आने पर उन्हें ही और सख्ती से लागू करते हैं.
इस तरह उनकी सरकारें धीरे-धीरे जनता के मन से उतर जाती हैं. भारतीय राजनीति की यह एक पहेली है. इसलिए यह अनेक संभावनाओं से भरी हुई है. यह कहना कठिन है कि ठीक चुनाव के वक्त कौन सा मुद्दा महत्वपूर्ण हो जाये और जनमानस किधर मुड़ जाये. लेकिन, इतना तो तय है कि किसान, व्यापारी या आम आदमी, कोई भी मौजूदा सरकारी नीतियों से बहुत खुश नहीं है.
सरकार किसी की भी हो, जो वादे चुनाव में होते हैं, वे जुमले ही रह जाते हैं. जनता की उम्मीदें बनती तो हैं, लेकिन अंत में उनकी बदहाली बनी रहती है. वहीं जनता विकल्प की तलाश में लगी रहती है. जनता की इसी खोज से राजनीतिक संभावनाओं का द्वार खुलता है.
ऐसे में क्या राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों के परिणामों को राजनीति की नयी संभावनाओं से जोड़कर देखना सही नहीं होगा? महाराष्ट्र में किसानों की विशाल रैली भी क्या इसी ओर संकेत नहीं कर रही है?

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