दागी प्रत्याशियों की संख्या चिंताजनक

महात्मा गांधी द्वारा बताये गये हिंसा के बुनियादी कारणों में एक कारण ‘सिद्धांतहीन राजनीति’ भी है. पर, स्वतंत्र भारत की चुनावी राजनीति पर नजर डालें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांतहीन राजनीति और उससे उपजी हिंसा ही इस राजनीति का मूल आधार है. मौजूदा चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को उपलब्ध करायी गयी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 10, 2014 4:24 AM

महात्मा गांधी द्वारा बताये गये हिंसा के बुनियादी कारणों में एक कारण ‘सिद्धांतहीन राजनीति’ भी है. पर, स्वतंत्र भारत की चुनावी राजनीति पर नजर डालें, तो ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांतहीन राजनीति और उससे उपजी हिंसा ही इस राजनीति का मूल आधार है. मौजूदा चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को उपलब्ध करायी गयी सूचनाओं के आधार पर दो स्वतंत्र संस्थाओं- नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स- द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार अब तक हो चुके आठ चरणों के चुनाव में 17 फीसदी उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं.

11 फीसदी प्रत्याशियों के विरुद्ध दर्ज मामले संगीन अपराधों से संबद्ध हैं. आखिरी चरण में 41 क्षेत्रों में होनेवाले चुनावों में खड़े 20 फीसदी उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मामले विचाराधीन हैं, जिनमें 15 फीसदी के खिलाफ गंभीर अपराधों के आरोप हैं. बीते वर्षो में राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध चले सामाजिक आंदोलनों के दबाव और सर्वोच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णयों के बाद दागी उम्मीदवारों पर नियंत्रण की आशा बंधी थी.

कांग्रेस और भाजपाजैसे बड़े दलों समेत क्षेत्रीय पार्टियों ने भी समय-समय पर यह वादा किया था कि वे दागी उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने से परहेज करेंगे, लेकिन लगभग सारी पार्टियों ने आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को प्रत्याशी बनाया है. इन संस्थाओं के शोध में यह भी रेखांकित किया गया है कि आपराधिक छवि के प्रत्याशियों के जीतने की संभावना गैर-आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों से अधिक होती है. उल्लेखनीय है कि 2009 के चुनावों में 15 फीसदी उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि से थे.

2014 में इनकी संख्या बढ़ने से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों की रुचि अधिक-से-अधिक सीटें जीतने में है, न कि राजनीति के अपराधीकरण की समाप्ति में. चुनावों में मतदाताओं, विशेषकर युवाओं व महिलाओं, की बढ़ती भागीदारी से बेहतर लोकतंत्र की उम्मीदें बढ़ी हैं, लेकिन अगर सार्वजनिक जीवन में दागी छवि वाले राजनेताओं की उपस्थिति ऐसे ही बनी रही, तो ये उम्मीदें टूट सकती हैं. चुनाव परिणामों में यह देखना दिलचस्प होगा कि मतदाताओं ने दागी उम्मीदवारों के प्रति क्या रुख प्रकट किया है!

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