।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
साधारण-सा खादी का कुर्ता, मामूली-सी धोती, सहज-सरल स्मृति से दीप्त मुख-मंडल और दंभ-रहित निर्मल वाणी. ये थे दादा छबिनाथ मिश्र, जिनसे मेरी पहली भेंट कलकत्ता में सत्तर के दशक में एक पुस्तक मेले के सिलसिले में हुई काव्यगोष्ठी में हुई थी. मैं तब तक उनके कई गीत ‘धर्मयुग’ में पढ़ चुका था और बहुत प्रभावित हुआ था. उस काव्यगोष्ठी में माहेश्वर तिवारी भी थे, जो कलकत्ता अखाड़े में कुछ साल जोर-आजमाइश कर चुके थे.
कलकत्ता के कवियों के समवेत संग्रह ‘एक सप्तक और’ में वे भी शामिल थे. उन्होंने जब बताया कि यही छबिनाथ दादा हैं, तो झुक कर उन्हें प्रणाम करना ही था. कारण यह था कि हिंदी जगत के अनेक लोग मुङो दादा का छोटा भाई समझते थे. उन्होंने जिस स्नेह से मुङो अपने अंकवार में भरा, मुङो अब तक याद है. तब तक उनका गीत संग्रह ‘अंगना फूले कचनार’ मिलन मंदिर, कलकत्ता के प्रयास से छप चुका था, और पूरे हिंदी काव्य जगत में चर्चित हो चुका था. उसका एक गीत मुङो बहुत पसंद था:
बहुत पीछे छोड़ आये, बांस की खुरदरी वंशी/ और खेतों पर झुका आकाश। तोड़ आये सेतु परिचय और गीले प्यार का मधुपाश।।
इसमें गांव के जो बिंब हैं, वे देर तक आंखों में छाये रहते हैं. मेरे जैसे किशोरवय कवि के लिए ऐसी पंक्तियां गूंगे के गुड़ से कम नहीं थीं. इस संग्रह के एक गीत में दादा ने नेताओं के भाषण को इंगित किया था:
महंगी हैं वस्तुएं, आओ आवाज पियें।
मिल-जुल कर भीड़ रचें, भाषण वक्तव्य चखें।
जीने के लिए, सिर्फ झूठे संवाद जियें।
दादा इतने सज्जन और इतने अंतमरुखी स्वभाव के रहे, कि कहीं भी अपना जीवन-परिचय उजागर नहीं होने दिया. पाठकों को बस इतना पता है कि उनका जन्म इलाहाबाद में 6 जनवरी, 1927 को हुआ था. वे कलकत्ता के उपनगर लिलुआ में रहते रहे और बहुत साधारण-सी नौकरी कर परिवार का भरण-पोषण करते रहे. अर्थकरी कवि सम्मेलनों से उन्हें वितृष्णा थी और पुस्तकों की बिक्री से किसी हिंदी कवि का पेट नहीं भर सकता; इसलिए हमेशा आर्थिक दशा ग्रह-ग्रसित ही रही, मगर इससे उनकी सर्जनात्मकता और आंतरिक मस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा. वे कलकत्ता की गोष्ठियों के सिरमौर थे और बाहर की यात्र करने से बहुत घबराते थे. कई बार मैंने उन्हें सरकारी उपक्रमों के साहित्यिक समारोहों में बाहर ले जाना चाहा, मगर दादा महानगर के दंशों से अविचलित रहते हुए, उसकी सीमा लांघना नहीं चाहते थे. अपने लंबे कलकत्ता प्रवास में मैं जिनके सरल व्यक्तित्व और उच्च रचनाशीलता से सबसे ज्यादा प्रभावित रहा और साथ ही जिनके फक्कड़पन को कोसता भी रहा, उनमें सर्वोपरि छबिनाथ दादा थे. कई बार वे बड़ा बाजार के एक प्रेस में प्रूफ पढ़ते मिले थे. उनके कष्टों का अनुमान कर मैं सिहर उठता था, मगर जब भी उनसे मिला, वही मस्ती भरा ठहाका, वही चुहलबाजी, वही साहित्य के हाशिये पर चले जाने की पीड़ा. वे हमेशा वर्तमान में जीते थे; न अतीत की सुधियों को धुनते थे, न भविष्य की परवाह करते थे. उनका कहना भी है कि ‘युयुत्सा हमारी मूल चेतना है; यह हमारी बाह्य और अंतरंग नकारात्मकता और सकारात्मकता का नितांत वैज्ञानिक और सामाजिक युगबोध है.’
वर्ष 1986 दादा की रचनाधर्मिता के विस्फोट का वर्ष था. एक ओर उनका छंदमुक्त कविताओं का संग्रह ‘टुकड़ों में बंटा आकाश’ छप कर आया, जिसका कवर प्रतिष्ठित गीत-कवि और चित्रकार भाई शंभू प्रसाद श्रीवास्तव ने बनाया था. इसकी तमाम कविताएं दादा गोष्ठियों में डूब कर सुनाते थे, जिनमें एक कविता की कुछ अविस्मरणीय पंक्तियां थीं:
अनायास ही तोड़ दी गयी हों जैसे घड़ियां सड़कों पर/ समय टूट कर
बहुत-बहुत बारीक कांच के टुकड़ों जैसा/ बिखर गया है..
इसी वर्ष उनका सर्वाधिक चर्चित ‘ऋचागीत’ भी छपा, जिसने गीत-विधा में एक नयी क्रांति ला दी. दादा ने विदिक मंत्रों के सूत्र-वाक्य का मनन कर उसके आधार पर जो गीत रचे, वे किसी भी भारतीय भाषा में अद्वितीय हैं. कलकत्ता के वे श्रोता सचमुच भाग्यवान हैं, जिन्होंने दादा के मुंह से ऋचाओं के साथ-साथ उनके गीतानुवाद सुने हैं. एक मंत्र ‘मधु वाता ऋतायते’ पर लिखे गीत की चंद पंक्तियां प्रस्तुत हैं:
हम सबका जीवन मधुमय हो।
सारी नदियां मधु बिखरायें/ हवा चले मधुवंती
दिशा-दिशा मधुरस बरसाये/ औषधि हो मधुवंती.
हम सबका यौवन मधुवन हो।।
ऋचागीत के प्रकाशन के एक वर्ष बाद 1987 में उनका काव्य संग्रह ‘कविता में जीने का सुख’ छपा था, जिसका कवर प्रसिद्ध नाट्यशिल्पी मदन सूदन भाई ने बनाया था. इसकी संक्षिप्त भूमिका में वे एक महत्वपूर्ण घोषणा करते हैं: ‘अपनी कवि-चेतना और अपने आम आदमी के एहसास को मुक्त एवं सहज करने की दिशा में अपने लिए कविता को ही एकमात्र ऐसा सच मानता हूं, जिसे अपने परिवेश एवं समय की तमाम विसंगतियों तथा जीवन की अर्थहीन स्थितियों के विरुद्ध खड़ा करके मुङो एक मामूली और माकूल आदमी होने की लड़ाई लड़ते रहना बेहद जरूरी लगता है.’
इसके अलावा ‘कलम का दर्द (1989), सुनो कविता मेरा नाम ईश्वर है (1994), ऋतुरंग (1995) की कविताएं भी अपने समय से संवाद करती हुई महानगर की भीड़ में अलग खड़ी दीखती हैं. ये सारे काव्य संग्रह अव्यावसायिक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित हुए थे, इसलिए बाजार में उनका उपलब्ध होना असंभव था. मैं सौभाग्यवश दादा के प्रियपात्रों में था, इसलिए छपने के बाद हर संग्रह की एक प्रति वे मुङो स्वयं देते थे. जब पिछली होली में मैने उनके ‘ऋचागीत’ से कुछ पंक्तियां स्मरण की थी, तो वे भावविह्वल होकर देर तक फोन पर बातें करते रहे. उन्होंने मुझसे आश्वस्ति भी ली थी कि बहुत जल्द मैं कलकत्ता आकर उनके दर्शन करूंगा. मगर उसके कुछ सप्ताह बाद ही वे बहुत बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हो गये. हमें कृतज्ञ होना चाहिए उनकी पुत्रीवत् इंदु जोशी का, जिन्होंने दादा के सारे काव्य-संग्रहों के साथ-साथ अनेक अप्रकाशित कविताओं को अपनी संस्था ‘प्रतिध्वनि’ 31 सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट, कलकत्ता-7 से ‘कविश्री छबिनाथ मिश्र: कविता यात्र’ शीर्षनाम से छपवाया है और बहुत सस्ते दाम पर काव्यप्रेमी पाठकों को उपलब्ध कराया है.