II कुमार प्रशांत II
गांधीवादी विचारक
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उर्जित पटेल बोले. बड़ी खबर यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के मुंह में जबान है अौर वह काटती भी है. देश की बैंकिंग-व्यवस्था की यह सिरमौर संस्था ने कभी ऐसी अपमानजनक भूमिका स्वीकार नहीं की थी, जैसी उर्जित पटेल ने इसे स्वीकार करने पर विवश कर दिया. यह चुप्पी अौर भी घुटन भरी इसलिए लग रही थी कि उर्जित पटेल ने उस जूते में पांव डाला था, जिसे रघुराम राजन ने उतारा था.
अपने छोटे लेकिन अत्यंत नाजुक दौर की गवर्नरी में रघुराम ने रिजर्व बैंक को एक अस्तित्व व हैसियत दिला दी थी. रघुराम राजन रिजर्व बैंक के टीएन शेषन थे. बैंकिंग अौर रिजर्व बैंक जैसी व्यवस्था को कभी समझने की जहमत न उठानेवाले अाम भारतीय के लिए भी रघुराम राजन का मतलब हो गया था.
फिर अचानक ही वे बेमतलब हो गये! हटाये गये. फिर हमने उर्जित पटेल का नाम सुना, अौर फिर हमने कुछ भी नहीं सुना. रघुराम के जाते ही इस सरकार ने देश की अार्थिक व्यवस्था पर जैसे हमला ही बोल दिया.
ऐसा लगा कि जैसे रिजर्व बैंक अौर सरकार के बीच रघुराम किसी चट्टान की तरह थे कि जिसके हटते ही सब तलवार भांजने लगे. भारतीय बैंकिंग व्यवस्था को अपमानित करने का ऐसा दौर कभी देखा नहीं था, जैसा उर्जित पटेल ने देखा व सहा. बैंकिंग व्यवस्था जैसे देशद्रोहियों का अड्डा घोषित कर दी गयी अौर नोटबंदी कर उसकी सांस रोक दी गयी. बैंक अौर बैंकिंग व्यवस्था से जुड़ा हर अादमी चोर घोषित कर दिया गया अौर फिर उससे ही कहा गया कि वह खुद को ‘जी हुजूर’ साबित करे. उर्जित पटेल से लेकर नीचे तक सब यही साबित करने में लग गये.
इतना ही नहीं हुअा, यह पूरी बैंकिंग व्यवस्था जिस खाताधारक की जेब के भरोसे चलती है, उसको सरेअाम सारे देश में एक साथ सड़कों पर, चौराहों पर, गलियों में जिस तरह अपमानित किया गया, उसकी कोई मिसाल दुनिया में है या नहीं, मुझे नहीं मालूम. वह खाताधारक एक व्यक्ति की एक घोषणा के साथ, रातोरात चोर-कालाबाजारी-अार्थिक अपराधी-देशद्रोही बनाकर सड़कों पर ठेल दिया गया.
उसके ही पैसों पर पलनेवाली सरकार ने उसे ही एक-एक पैसे के लिए मोहताज बना दिया. जलती धूप में गंदी नालियों के किनारे, धूल फांकते, भूखे-प्यासे खड़े लोगों की वैसी कतारें शायद ही दुनिया में कभी, कहीं देखी गयी होंगी. अौर ये वे लोग थे जिनका पैसा पसीने से पैदा होता है, सत्ता-संपत्ति-कुर्सी के पेड़ में फलता नहीं है. करोड़ों खाताधारक भिखमंगे बना दिये गये.
क्या सरकार की इस (कु) नीति से बैंकिंग व्यवस्था के किसी भी अधिकारी ने विरोध प्रकट किया? क्या रिजर्व बैंक ने कभी यह सवाल उठाया कि भारतीय मुद्रा का नियमन उसका क्षेत्र है, तो सरकार ने उसे विश्वास में लेकर अौर उसे साथ में लेकर काम क्यों नहीं किया?
इब्ने इंसा के किसी जासूसी उपन्यास के नायक की तरह बरत रहे प्रधानमंत्री को बैंकिंग व्यवस्था के लोगों ने अर्थ-तंत्र के मैदान में उतार लाने की कोशिश क्यों नहीं की, यह सवाल मैं पूछ नहीं रहा हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि कुर्सी के बहादुरों का बहादुरी से कितना नाता होता है. मैं उर्जित पटेल से यह भी नहीं पूछ रहा हूं कि जब नोटबंदी की घोषणा से पहले भाजपा ने अपने अौर अपनों के नोटों का इंतजाम किया-करवाया था, तब अापकी अावाज क्यों गुम थी?
लेकिन यह पूछे बिना कोई कैसे रहे कि उस दौर में किसी ने क्यों नहीं बैंकों को इतना निर्देश दिया कि नोटबंदी के मारे लोगों के साथ इज्जत व सहानुभूति का व्यवहार हो और नौकरशाही के फरमानों का शैतानी पालन न किया जाये. सरकार ने आम आदमी को अपमानित किया, तो बैंकिंग व्यवस्था ने उन्हें हर कदम पर जलील किया.
उर्जित पटेल तब भी कुछ नहीं बोले. जब नोटबंदी की मियाद के बारे में, नोटों की उपलब्धता के बारे में, एटीएम के नाम पर लोगों को पल-पल छला जा रहा था. उर्जित पटेल तब भी नहीं बोले, जब लोगों को डराया जा रहा था. वे तब भी कुछ नहीं बोले, जब बैंकिंग व्यवस्था से जुड़े लोगों को कामचोर, चोर, भ्रष्ट कहा जा रहा था.
वे तब भी नहीं बोले, जब यह बात फैल रही थी कि उनकी बैकिंग व्यवस्था के लोग पुराने नोटों की अदला-बदली का नाजायज धंधा कर रहे हैं. उस पूरे दौर में देश में रिजर्व बैंक नाम की कोई संस्था है, यह पता करना भी मुश्किल था अौर यह खोजना भी मुश्किल था कि उर्जित पटेल नाम कहां हैं.
अब उर्जित पटेल गुजरात की राजधानी गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के समारोह में बोल रहे हैं कि रिजर्व बैंक की हैसियत इस कदर कमजोर कर दी गयी है कि वह कोई प्रभावी भूमिका अदा ही नहीं कर सकता है. वे यह भी कह रहे हैं कि पंजाब नेशनल बैंक के नीरव मोदी अौर ‘अपने’ मोहित भाई जब सारा घपला कर रहे थे, तब रिजर्व बैंक ने सरकार को सावधान किया था, लेकिन उसने अनसुनी कर दी. उन्होंने वह तक कहा, जिसे सरकार अपने खिलाफ बयान मान ले सकती है अौर जिसे एकजुट होता विपक्ष हथियार बना सकता है. लेकिन मैं दूसरी बात पूछूंगा- अगर रिजर्व बैंक को इतना अप्रभावी बनाया जा रहा था, तब अापने क्या किया? अाप जिस पद पर थे अौर हैं, उसका तकाजा है कि रीढ़ की हड्डी सीधी रहे.
रीढ़ सीधी हो तो हिम्मत अपने अाप अा जाती है. यह वक्ती साहस टिकेगा नहीं, उर्जित जी! अगर रिजर्व बैंक के गवर्नर को ऐसा लगा हो कि अब तक जो हुअा सो हुअा, लेकिन अब अर्थ-तंत्र के मामले में वे अपनी जिम्मेदारी को प्रतिबद्धता से निभायेंगे, तब तो इस साहस का कोई मतलब है, अन्यथा बातें हैं बातों का क्या!