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पुतिन की जीत के मायने

II पुष्पेश पंत II वरिष्ठ स्तंभकार pushpeshpant@gmail.com हाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर एक अभूतपूर्व प्रवृत्ति उदीयमान है, जो विचारणीय है. संसार की तीन प्रमुख बड़ी शक्तियों में, जिनकी पारंपरिक पहचान ‘महाशक्ति’ के रूप में है, सर्वोच्च नेता की ताजपोशी निरंकुश तानाशाह के रूप में की गयी है. अमेरिका में अप्रत्याशित जीत […]

II पुष्पेश पंत II
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com
हाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर एक अभूतपूर्व प्रवृत्ति उदीयमान है, जो विचारणीय है. संसार की तीन प्रमुख बड़ी शक्तियों में, जिनकी पारंपरिक पहचान ‘महाशक्ति’ के रूप में है, सर्वोच्च नेता की ताजपोशी निरंकुश तानाशाह के रूप में की गयी है.
अमेरिका में अप्रत्याशित जीत के बाद डोनाल्ड ट्रंप का स्वच्छंद आचरण हो या चीन में शी जिनपिंग के आजीवन अपने पद पर बने रहने के फैसले पर वहां की साम्यवादी पार्टी का मुहर लगाना हो, ये बातें इसी संदर्भ में चर्चित रही हैं. अब रूस में व्लादिमीर पुतिन के लगभग निर्विरोध एक बार फिर चुने जाने से यह ‘हैट ट्रिक’ पूरी हो गयी है. हमारी समझ में पुतिन की जीत इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है.
जहां अमेरिका में ट्रंप का विरोध करनेवाले व्यक्ति मुखर हैं और उनके ‘असंवैधानिक’ फैसलों को अदालत ने निरस्त किया है, वहीं चीन या रूस में असहमति का स्वर मुखर करनेवाले विपक्षी की जान खतरे में रहती है.
स्वतंत्र मीडिया के अभाव में ‘असंतुष्ट तत्वों’ को जनता को संबोधित करने का अवसर ही नहीं मिलता. चीन और रूस को जो बात अलग करती है, वह यह है कि चीन पारंपरिक रूप से किसी करिश्माई महामानव के एकाधिपत्य को सहज भाव से स्वीकार करता आया है और उसकी कन्फ्यूशियाई सांस्कृतिक विरासत अंतर्मुखी तथा विदेशियों को बर्बर समझनेवाली रही है. इसकी तुलना में रूस में जारशाही से आज तक राजशाही या साम्यवादी पार्टी का प्रतिरोध करने की लंबी परंपरा है. जहां चीन के समाज की पहचान नस्ली समरसता को प्रतिबिंबित करती है, वहीं यूरेशियाई रूस अलगाववादी उपराष्ट्रीयता की जटिल चुनौतियों से जूझता रहा है.
जहां चीन खुद को सभ्यता का आदर्श मानता है, रूस पश्चिमी यूरोपीय आधुनिकता को अनुकरणीय मानता रहा है. लेनिन और स्तालिन का साम्यवाद देशज नहीं था, जबकि माओ का साम्यवाद मार्क्सवाद-लेनिनवाद को सैद्धांतिक-व्यावहारिक शीर्षासन कराता नजर आता रहा. चीन में सर्वशक्तिमान सम्राट सरीखे नेता की परंपरा में निरंतरता झलकती है, जबकि पुतिन के संदर्भ में यह एक बुनियादी परिवर्तन का संकेत है.
पुतिन ने जब पहली बार सत्ता ग्रहण की थी, वह ‘नौजवान’ थे और यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि भ्रष्ट संगठित अपराधियों से पार्टी और देश को मुक्त कराने के बाद वह जनतंत्र का सूत्रपात करेंगे तथा जिस कायाकल्प को पूर्व सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचौव ने शुरू किया था, उसे वह गतिशील बनायेंगे. यह तमाम आशाएं निर्मूल सिद्ध हो चुकी हैं. यह सच है कि रूस आज टूट की कगार पर या दिवालिया नहीं दिखायी देता, पर इस उपलब्धि के लिए रूसियों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.
रूसी साम्यवादी पार्टी का क्षय हो चुका है और जनतंत्र के बीजारोपण की कोई संभावना शेष प्रतीत नहीं होती. इसे आप रूसियों का आंतरिक मामला नहीं कह सकते हैं, क्योंकि पुतिन ने अपने शासनकाल में जिस उत्कट देश-प्रेम की भावना को भड़का कर एकता, अखंडता और सामरिक राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी है, उसका प्रभाव बाकी दुनिया पर पड़े बिना नहीं रह सकता.
याद रखने की जरूरत है कि डोनाल्ड ट्रंप अपने कार्यकाल का पहला बरस ही अभी पूरा किये हैं और शी जिनपिंग के भी दस साल ही पूरे हुए हैं. इनकी तुलना में व्लादिमीर पुतिन 2000 से सत्तारूढ़ हैं. अर्थात वह अपनी छाप अपने देश और दुनिया पर इन समकालीन निरंकुश समझे जानेवाले नेताओं की तुलना में कहीं गहरी छोड़ चुके हैं. उनके शासनकाल में रूस की यूरेशिया पहचान धुंधली हुई है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि रूस आज यूरोपीय बिरादरी के करीब है.
पुतिन के यूरोपमुखी होने का अर्थ सोवियत साम्राज्य के उपग्रहों यानी पूरबी यूरोप के राज्यों को फिर से अपने प्रभाव क्षेत्र में खींच कर लाना है. यूक्रेन और क्रीमिया में उनका सैनिक हस्तक्षेप इसी रणनीति का उदाहरण है. पुतिन के तेवर पूंजीवादी पश्चिमी ताकतों के नेता अमेरिका से मुठभेड़ को बढ़ावा देनेवाले ही नजर आते रहे हैं. स्वदेश में भले ही पुतिन ने साम्यवादी पार्टी को कमजोर बनाया है, अंतरराष्ट्रीय राजनय में वामपंथी सरकारें उन्हें स्वाभाविक साझीदार लगती हैं, चाहे वह लातीनी अमेरिकी वेनेजुएला ही क्यों न हो. चीन ने उनकी जीत पर बधाई देते हुए रूस के साथ सहकार को घनिष्ठ करने की आशा व्यक्त की है.
पश्चिम एशिया में सीरिया गृहयुद्ध में जोखिम भरा हस्तक्षेप करने से पुतिन हिचकिचाये नहीं, जिसका यही नतीजा निकाला जा सकता है कि वह रूस के राष्ट्रीय हित को इस इलाके की तेल की राजनीति से गहरा जुड़ा मानते हैं और यहां अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दे रहे हैं. अमेरिकी चुनाव में खुफिया हस्तक्षेप हो या ब्रिटेन में पूर्व रूसी जासूस की हत्या, पुतिन की कार्य-शैली अक्सर चौंकानेवाली रही है.
विडंबना यह है कि इतने महत्वपूर्ण परिवर्तनों के प्रति भारत उदासीन रहा है. कुछ समय तक यह बेकरारी रही कि क्यों हमारा संधिमित्र पाकिस्तान को सैनिक साजो-सामान बेच रहा है, फिर हम निश्चिंत बैठ गये.
आज बदले रूस के लिए भारत के साथ विशेष रिश्ता सामरिक या आर्थिक महत्व का नहीं रह गया है. भारत यह आशा नहीं कर सकता है कि चीन या पाकिस्तान के संदर्भ में हमारे हितों में अनिवार्य संयोग या सन्निपात है. अतीत के साझे की मधुर स्मृतियां भविष्य में किसी काम की नहीं. इस नाते दूरदर्शी विचार-विमर्श परमावश्यक है.

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