नये बिंबों और मुहावरों का कवि

II रविभूषण II वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com स्वतंत्र भारत के जिन कुछ हिंदी कवियों ने अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठा पायी, विश्व की अनेक भाषाओं में जिनकी कविताओं के अनुवाद हुए और जिन्होंने अपनी एक नयी, मौलिक शैली से कविता को समृद्ध किया, उनमें केदारनाथ सिंह प्रमुख हैं. अब वे हमारी स्मृति में जीवित हैं और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 26, 2018 5:07 AM
II रविभूषण II
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
स्वतंत्र भारत के जिन कुछ हिंदी कवियों ने अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठा पायी, विश्व की अनेक भाषाओं में जिनकी कविताओं के अनुवाद हुए और जिन्होंने अपनी एक नयी, मौलिक शैली से कविता को समृद्ध किया, उनमें केदारनाथ सिंह प्रमुख हैं. अब वे हमारी स्मृति में जीवित हैं और अपनी कविताओं में उपस्थित हैं. भौतिक काया में नहीं, उस शब्द-संसार में जहां जाना केदार को देखना ही नहीं, उनके साथ रुकना और ठहरना भी है.
उनके अपने नये, मौलिक, चमकीले मुहावरे थे और आकर्षक बिंब. उनकी कविताओं में गांव की स्मृतियां हैं, ग्रामीण परिवेश है, वहां के जीवंत पात्र हैं. ‘मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी हैं.’ दिल्ली में उनका शरीर रहता था, मन नहीं. गांव उनके साथ हमेशा मौजूद था. चंद्रकांत देवताले और कुंवर नारायण के बाद उनका जाना एक खास समय का भी चले जाना है. ‘जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.’
‘अभी बिल्कुल अभी’ से ‘सृष्टि पर पहरा’ तक के आठ काव्य-संग्रहों की उनकी कविताएं उनके समस्त कवि-कर्म को, उनके काव्य-विकास और समय के साथ उनकी चिंताओं को समझने के लिए कम नहीं हैं.
उनका नया संग्रह ‘मतदान केंद्र में झपकी’ प्रकाशनाधीन है. ‘प्रतीक’ में प्रकाशित करने के लिए अज्ञेय उनकी कविताएं लेने उनके छात्र-जीवन में उनके हॉस्टल गये थे. ‘तीसरा सप्तक’ में अज्ञेय ने उन्हें शामिल किया था. केदारनाथ सिंह न तो अज्ञेय के काव्य-मार्ग पर बढ़े और न मुक्तिबोध के काव्य-मार्ग पर. उन्होंने अपने काव्य-मार्ग का स्वयं निर्माण किया. उनकी कविताएं रघुवीर सहाय से भिन्न हैं.
केदार की कविताएं केदार की कविताएं हैं. हिंदी के समकालीन कवियों पर जिन दो पूर्व कवियों का विशेष प्रभाव पड़ा, उनमें रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह हैं. केदार की काव्य-संवेदना शहरी और नागर नहीं, ग्रामीण और कस्बाई है. ‘लोक’ से उनका गहरा नाता था.
दिल्ली में लंबे समय तक रहने के बाद भी वे रहते थे बनारस और चकिया में ही. चकिया से दिल्ली तक की उनकी यात्रा में उनकी स्मृति में सदैव गांव रहा. वर्ष में एक बार गांव जाना, मातृभूमि जाना था, उस समय में जब अनेक कवियों को न तो ‘मां’ से मतलब है और न ‘भूमि’ से. उनके यहां किसी प्रकार की हड़बड़ी और जल्दबाजी नहीं है. ‘बनारस’ कविता में शहर अपनी एक टांग पर खड़ा है, दूसरी टांग से बेखबर.
केदार के भीतर कविता हमेशा पकती रही. ‘पकना’ उनकी कविताओं में एक सामान्य क्रिया नहीं है. वह एक प्रमुख क्रिया है. इसके साथ जो अन्य क्रियाएं हैं, उनकी पहचान भाषा के व्याकरण से नहीं, जीवन के व्याकरण से होती है.
केदार की कविताओं का व्याकरण उनके समकालीन कवियों के काव्य-व्याकरण से भिन्न है. उनके यहां क्रियाएं प्रमुख हैं. त्रिलोचन ने ‘क्रिया में बल’ की बात कही है. छायावाद में निराला के यहां सर्वाधिक क्रिया-प्रयोग है. कर्ममय जीवन में क्रिया ही सब कुछ है. उनका दूसरा संकलन ‘जमीन पक रही है’ एक लंबे अंतराल के बाद 1980 में आया. इस संकलन में उनकी कविता और अधिक पककर आयी. अब वे गीतों की दुनिया से निकल चुके थे.
उनकी काव्य-भाषा सादी दिखती है, पर उसके भीतर एक पूरा संसार और इतिहास है. उनकी कविताओं में शब्द, भाषा, जीवन, श्रम, लोक और सौंदर्य को बचाने की चिंता है. बार-बार वहां मिट्टी, धरती और पृथ्वी आती है. यह केवल शब्दागमन नहीं है. जमीन का पकना उनके लिए रोटी के पकने से अधिक महत्वपूर्ण है. केदार की कविता में बार-बार ‘आग’ आती है- ‘मैं कविता नहीं कर रहा/ सिर्फ आग की ओर इशारा कर रहा हूं.’ रोटी उनके लिए भूख के बारे में ‘आग का बयान’ है.
केदार के यहां जड़ों का महत्व है. उनका ‘देखना’ महत्वपूर्ण है. यह कवि-दृष्टि भिन्न, नयी, मौलिक और विशिष्ट है. ‘कागज’ में ‘पेड़ों की यातना भरी चुप्पी’, भाषा को ‘दांतों के बीच की जगहों में सटी’ देखना सामान्य नहीं है. केदार की कविता में जितना ‘व्यक्त’ है, उससे कहीं अधिक ‘अव्यक्त’ है.
वे ‘पकते हुए दाने के भीतर/ शब्द के होने की पूरी संभावना’ देखते हैं. उनका एक काव्य-संग्रह है ‘यहां से देखो’ (1983), ‘दो मिनट का मौन, वे डूबते दिन, जाते हुए पक्षी, रुके हुए जल और घिरती हुई रात’ पर रखते हैं. केदार की कविताओं से कई बंद दरवाजे खुलते हैं.
चक्की के अंदर मां को और चक्की की आवाज में मां की आवाज उन्होंने सुनी. ‘प्रतीक्षा’ उनके यहां ‘एक गलत शब्द है’, आदमी को सिर्फ तैयार रहना चाहिए. उनका देखना, सुनना एकदम भिन्न है. उनकी नजर ‘जरा-सा हिलने’ पर भी है. वे पानी को रोशनी की तरह देखते हैं. जल ही जीवन है. ‘स्वस्थ’ व्यक्ति उनकी दृष्टि में सबसे अधिक बीमार है.
केदार की कविता पहले हमें अपने नयेपन से आकर्षित करती है. उनका कला पक्ष मौलिक और विशिष्ट है. जो कवि ‘कीड़े की मृत्यु’ पर कविता लिखता हो, वह इस पूरी सभ्यता को किस दृष्टि से देखेगा? उनकी कविता में एक संयम है, अपराधी पर लिखते हुए भी वहां आक्रोश नहीं है.
‘उठता हाहाकार जिधर है/ उसी तरफ अपना भी घर है.’ वहां तर्क, चिंतन और विचार है- ‘मैं क्यों/ किस तर्क से हिंदू हूं/ क्या मैं कभी जान पाऊंगा?’ एक कवि का अपनी भाषा में उसी तरह लौटना जैसे चींटियां बिलों में, कठफोड़वा काठ के पास और वायुयान हवाई अड्डे के पास लौटता है.
लौटना आज के समय में इसलिए जरूरी है कि जड़ों और परंपराओं की बात करनेवालों ने सब कुछ को विकृत कर डाला है. ‘यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा/ मैं लिखना चाहता हूं.’ यह समय चुप रहने का नहीं है. ‘होठों को चाहिए/ सिर्फ दो होठ/ जलते हुए/ बोलते हुए होठ.’

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