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शिक्षा के साथ खिलवाड़

उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के आकलन से जुड़े एक सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जिन अकादमिक पत्रिकाओं को स्तरीय मानते हुए सूचीबद्ध किया है, उनमें से 88 फीसदी निम्न कोटि की हैं. सहज बुद्धि से यह सोच पाना मुश्किल है कि सूचना-प्रौद्योगिकी के इस तेज-रफ्तार दौर में कोई ऐसी भी […]

उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के आकलन से जुड़े एक सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने जिन अकादमिक पत्रिकाओं को स्तरीय मानते हुए सूचीबद्ध किया है, उनमें से 88 फीसदी निम्न कोटि की हैं.
सहज बुद्धि से यह सोच पाना मुश्किल है कि सूचना-प्रौद्योगिकी के इस तेज-रफ्तार दौर में कोई ऐसी भी पत्रिका हो सकती है, जिसका संपादक अज्ञात हो, डिजिटल युग में भी जिसका जिक्र इंटरनेट पर न हो या फिर पत्रिका के बारे में बुनियादी जानकारी पत्रिका के पन्नों पर ही न मिले. विभिन्न शिक्षण संस्थाओं से जुड़े शोधकर्ताओं के दल ने यूजीसी द्वारा अनुमोदित शोध-अनुसंधान की 35 फीसदी पत्रिकाओं/जर्नल में ये कमियां पायी हैं. यूजीसी ने पिछले साल 35 हजार अकादमिक पत्रिकाओं को मान्यता देते हुए सूचीबद्ध किया था.
इनमें प्रकाशित लेखों के आधार पर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति या प्रोन्नति के लिए योग्यता के निर्धारण में अंक दिये जाते हैं. अध्ययन के मुताबिक, 35 फीसदी जर्नल में संपादक का नाम, प्रकाशन का स्थान या फिर वेबसाइट का उल्लेख नहीं है. पचास फीसदी से ज्यादा जर्नल ऐसे हैं, जिनमें आइएसएसएन (मानकीकरण की संख्या), इम्पैक्ट फैक्टर (प्रकाशित शोध का प्रभावकारिता) या प्रकाशन-जगत की संस्थाओं के साथ संबद्ध होने जैसी जानकारियों के बारे में कच्ची जानकारी दी गयी है या झूठ बोला गया है. ज्ञान का सत्यापन और प्रमाणीकरण जरूरी है और इसके लिए ज्ञान का उचित ब्यौरे के साथ सार्वजनिक होना पहली शर्त है.
किन ब्यौरों को ज्ञानराशि के प्रमाणीकरण और सत्यापन के लिए उचित माना जाये, इसकी एक परिपाटी होती है और यूजीसी ऐसी ही परिपाटी तय करनेवाली उच्च शिक्षा की नियामक संस्था है. इस कारण यूजीसी से अनुमोदन प्राप्त जर्नलों में ऐसी खामियां होना उच्च शिक्षा में गिरते मानदंड का एक संकेत ही है.
इस स्थिति की व्याख्या में मात्र इतना कहकर संतोष नहीं किया जा सकता है कि हाल के सालों में एक बुनियादी भूल हुई है, शिक्षण और अनुसंधान को परस्पर स्वायत्त क्षेत्र न मानते हुए शिक्षकों की नियुक्ति और प्रोन्नति में प्रकाशित शोध-कार्य को एक आधार बनाने के कारण निहित स्वार्थों को यूजीसी जैसी नियामक संस्थाओं में घुसपैठ करने का मौका मिला. समस्या कहीं ज्यादा गहरी है और निगरानी के तंत्र के कमजोर होने की सूचना देती है. मानदंड गुणवत्ता की परख की कसौटी भर नहीं होते, वे किसी समाज के आदर्श और आकांक्षा की पहचान भी होते हैं. अकादमिक जर्नलों में कमियों का होना और उनका लापरवाह मानकीकरण ज्ञान-आधारित समाज बनने के राष्ट्रीय स्वप्न पर गहरी चोट की तरह है.
इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों पर यूजीसी को तुरंत सोच-विचार कर फौरी तौर पर गलतियों को दुरुस्त करना चाहिए. हर स्तर पर अच्छी शिक्षा व्यवस्था के बिना देश के विकास और समृद्धि की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकती है.

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