हे राम!
II मिथिलेश कु. राय II युवा रचनाकार कक्का पूछ रहे थे कि कभी-कभी कुछ लोग मंत्र को नारे की तरह इस्तेमाल क्यों करने लगते हैं. पहले तो मैं कुछ समझा ही नहीं. पर जब उन्होंने यह कहा कि जो सत्संगी हैं, वे श्रीराम का नाम एक मंत्र की तरह माला पर जपते रहते हैं और […]
II मिथिलेश कु. राय II
युवा रचनाकार
कक्का पूछ रहे थे कि कभी-कभी कुछ लोग मंत्र को नारे की तरह इस्तेमाल क्यों करने लगते हैं. पहले तो मैं कुछ समझा ही नहीं. पर जब उन्होंने यह कहा कि जो सत्संगी हैं, वे श्रीराम का नाम एक मंत्र की तरह माला पर जपते रहते हैं और कहते हैं कि इससे उन्हें बड़ी राहत महसूस होती है.
कक्का ने बताया कि वे लोग जब किसी कीर्तन मंडली के साथ अष्टयाम वगैरह में जाते हैं, आठ पहर तक राम के नाम का भजन गाते हैं.
कक्का बता रहे थे कि ढोल, हारमोनियम और तालियों की थाप पर राम के नामों की माला बनाकर इस तरह गाये जाते हैं कि सुननेवाले तन्मय हो जाते हैं. गानेवाले शुरू में सामान्य रहते हैं, लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता जाता है, वे झूमने लगते हैं. जहां कहीं भी छोटा सा कोई कीर्तन होता है, उसमें भजनों के बीच में राम-नाम का भजन जरूर गाया जाता है.
समाज में यह नाम एक पवित्र रंग है, जिसका इस्तेमाल लोग अपनी आंतरिक-शक्ति और आत्मिक शांति के लिए करते आये हैं. इसलिए वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि इसे एक नारे के रूप में कब और किसके द्वारा मान्यता मिल गयी कि हुड़दंगियों द्वारा इसका प्रयोग कुत्सिक कार्यों के बीच किया जाने लगा.
कक्का मुझे जब यह सब बता रहे थे, मुझे एहसान की बात याद आ गयी. एहसान मेरे साथ ही ट्रेनिंग ले रहा है और प्रारंभिक विद्यालय में सामाजिक विज्ञान का शिक्षक है. पता नहीं किन स्वभावों के कारण एडमिशन के दौरान ही हमारी घनिष्ठता बढ़ गयी. बहरहाल, एहसान एक बात की चर्चा अक्सर किया करता है.
वह कहता है कि पता नहीं देश और दुनिया इतनी तेजी से किस ओर जा रही है कि लोग अब पवित्र शब्दों को भी नहीं बख्श रहे हैं और उसका इस्तेमाल लगातार अपवित्र माहौल और बुरे कामों में किया जा रहा है. यह बहुत दुखद है.
एहसान जब भी किसी फिल्म में दंगे का दृश्य देखता है, वह बताता है कि उस दृश्य में किन चीजों को नहीं होना चाहिए. वह अखबारों में दो समुदायों के बीच झड़प वाली खबर पढ़ता है, तो गहरे दुख में डूब जाता है.
मुझसे पूछता रहता है कि आदमी आखिर में हासिल क्या करना चाहता है अमन और चैन को खोकर? देश-दुनिया में दंगाें की जानकारी मिलते ही वह उस पर अपना आक्रोश प्रकट करता है.
एक दिन एहसान कह रहा था कि दुनिया जब से बनी है, तब से न जाने कितने भेद मिट गये हैं. लेकिन राम और रहीम का भेद क्यों नहीं मिट पा रहा है. जबकि हम अब पहले से अधिक जीनियस और सभ्य हुए हैं.
एक दिन तो वह कहने लगा कि देखो कि अब हुड़दंगी धर्म की आड़ में कैसे पवित्र शब्दों से खेलने लगे हैं. अल्लाहु अकबर शब्द काे जब उसके समुदाय में उच्चारित किया जाता है, तो आत्मिक संतुष्टि मिलती है. इस शब्द को बोलकर हम हार्दिक खुशी से भी ज्यादा प्रकट करते हैं. लेकिन, अब इसके बोलने के क्रम में तलवार लहराने के दृश्य कौंधने लगे हैं. यह दुखद है.