देश के संसदीय इतिहास में 2012 के मॉनसून सत्र को सबसे ज्यादा गतिरोध वाला सत्र माना जाता है. तब कोयला खदानों में आवंटन में हुई गड़बड़ी का मुद्दा था और इस पर यूपीए सरकार को विपक्ष ने घेर लिया था, पर मौजूदा बजट सत्र 2012 के मॉनसून सत्र के रिकाॅर्ड को तोड़ने की ओर अग्रसर है. चालू सत्र की महज 22 बैठकों की उत्पादकता लोकसभा में 25 और राज्यसभा में 35 फीसदी रही है.
संसद में जारी गतिरोध के कारण अब तक 190 करोड़ रुपयों का नुकसान हो चुका है, जो सांसदों के वेतन-भत्तों, अन्य सुविधाओं तथा कार्यवाही से संबंधित इंतजाम पर खर्च हुए हैं. इसी संसद ने पिछले साल बजट सत्र में कामकाज का शानदार रिकॉर्ड बनाया था. उसे दोहराने या बेहतर बनाने का संकल्प क्यों नहीं लिया गया? बीते वर्ष बजट सत्र के दोनों चरणों में लोकसभा की 29 बैठकें हुई थीं और कुल अवधि नियत समय से 19 घंटे ज्यादा रही थी.
जाहिर है, तब उपादेयता यानी कामकाज 113 प्रतिशत रही. पिछली बार बजट पर बहस के साथ वस्तु एवं सेवाकर प्रणाली (जीएसटी) जैसा महत्वपूर्ण विधेयक भी पर्याप्त चर्चा के बाद पारित हुआ था, मगर इस बार के बजट सत्र में हंगामे के कारण 99 मंत्रालयों/विभागों का बजट महज 30 मिनट में मंजूर कर दिया गया. राष्ट्रपति-राज्यपालों की वेतन में बढ़ोतरी और विदेश से मिले राजनीतिक चंदे को जांच मुक्त करने जैसे बहसतलब विधेयक भी बिना चर्चा के पारित हो गये.
अगर एक साल के भीतर संसद के कामकाज के स्तर में इतना अधिक अंतर दिख रहा है, तो उसकी वजहें दोनों खेमों- सत्तापक्ष और विपक्ष के दलों- के रवैये में खोजी जानी चाहिए. अगले लोकसभा के चुनावों की रणनीतिक तैयारियों के लिए जमीन तलाशी जा रही है. हर दल के पास रोष जाहिर करने के लिए एक मुद्दा है.
सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को लग रहा है कि संसद को रोष जाहिर करने के एक मंच की तरह इस्तेमाल किया जाये और मतदाताओं को उससे प्रभावित कर अपने मुद्दे के इर्द-गिर्द गोलबंद करने की कोशिश हो.
अगर मुद्दों के समाधान की तलाश रहती, तो दोनों ही पक्ष बहस का रास्ता अपनाते और संसदीय परंपराओं के मुताबिक तनातनी को समाप्त करने की गंभीर कोशिश करते. अगर संसद में विभिन्न पार्टियां संवाद और चर्चा की राह नहीं अपना सकतीं, तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमतियों और विरोधाभासों के उपचार की आशा किस मंच से की जायेगी?
अफसोस की बात है कि सुचारु रूप से कामकाज हो, इस पर मंथन करने की जगह आरोप-प्रत्यारोप से खुद को सही और दूसरों को गलत साबित करने की कवायद हो रही है.
एक देश के रूप में हमें हमेशा याद रखना होगा कि संसद लोकतंत्र की पवित्रतम संस्था और समस्याओं के समाधान की शीर्षस्थ पंचायत है. इस संस्थान की मर्यादा का निर्वाह करना संसद में मौजूद हर एक जनप्रतिनिधि और राजनीतिक दल का सबसे बड़ा कर्तव्य है.