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भेदभाव के शिकार बिहार जैसे राज्य

II डॉ शैबाल गुप्ता II सदस्य सचिव, एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट, (आद्री), पटना shaibalgupta@yahoo.co.uk केरल के वित्त मंत्री डॉ टीएम थॉमस इसाक ने 10 अप्रैल, 2018 को दक्षिण भारत (तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल) के सभी वित्त मंत्रियों की बैठक बुलायी है. बैठक 15वें वित्त आयोग के टर्म ऑफ रेफरेंस (टीओआर) के संबंध में […]

II डॉ शैबाल गुप्ता II
सदस्य सचिव, एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट, (आद्री), पटना
shaibalgupta@yahoo.co.uk
केरल के वित्त मंत्री डॉ टीएम थॉमस इसाक ने 10 अप्रैल, 2018 को दक्षिण भारत (तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल) के सभी वित्त मंत्रियों की बैठक बुलायी है.
बैठक 15वें वित्त आयोग के टर्म ऑफ रेफरेंस (टीओआर) के संबंध में केंद्र सरकार के पास सामूहिक राय पेश करने के लिए बुलायी गयी है. क्योंकि, इस वित्त आयोग में संसाधनों के वितरण के लिए 2011 की जनगणना को आधार बनाया जाना है.
इसके अलावा यह भी कि दक्षिण भारतीय राज्यों को विकास के लिए केंद्र से जो राशि मिलती है, उससे कहीं अधिक वे केंद्रीय खजाने में जमा करा देते हैं. हालांकि इन दक्षिणी राज्यों के कई मसलों पर मतभेद भी हैं, मगर टीओआर के विरोध पर उनमें आपसी सहमति दिखती है.
भारतीय संविधान की धारा 280 के आलोक में वित्त आयोगों के गठन का मकसद राज्यों के बीच समानता सुनिश्चित करना रहा है. क्योंकि आजादी के वक्त लोग न सिर्फ सामाजिक व शैक्षणिक तौर पर कमजोर थे, बल्कि उनमें क्षेत्रीय असमानताएं बड़े पैमाने पर थीं. आजादी की शाम को जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ में कहा था कि देश में समानता लानेवाला औजार भारत में हर आंख के हर आंसू को पोछेगा. वित्त आयोग इस काम को करने के लिए सबसे ठोस उपाय था. मगर, दुर्भाग्यवश पिछले सात दशकों में समानता लाने की यह प्रक्रिया इस कदर इकतरफा चली कि करोड़ों लोगों की आंखों में आज भी आंसू नजर आते हैं, खास तौर पर गरीब राज्यों में, जो अधिकांशतः उत्तर भारत का हिस्सा है.
साल 2011 के जनगणना के आंकड़ों को संसाधन वितरण का आधार मानना समानता के नजरिये से न्यायसंगत लगता है. इसके लिए 1971 के आंकड़ों का इस्तेमाल न सिर्फ अव्यावहारिक है, बल्कि यह अधिक आबादी वाले राज्यों के साथ भेदभाव करनावाला भी है. हो सकता है साल 2026 तक लोकसभा सीटों को 1971 की जनगणना के आधार पर फ्रीज रखना तार्किक हो, लेकिन राजनीतिक समानता की इस रणनीति (लोकसभा सीटों को फ्रीज करके) को आर्थिक समानता के क्षेत्र में नहीं लाना चाहिए. ऐसा हुआ, तो भारत का एक एकीकृत राजनीतिक शक्ति बने रहना काफी मुश्किल हो जायेगा.
यह सच है कि अधिकतर दक्षिणी राज्यों में खास कर बीसवीं सदी में बड़े-बड़े सामाजिक आंदोलन हुए हैं. उदाहरण के लिए केरल उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां साक्षरता के लिए बारी-बारी से टॉप डाउन और बॉटम अप दोनों सिद्धांतों के आंदोलन हुए हैं.
दक्षिण भारत के सामाजिक (ब्राह्मण विरोधी) आंदोलनों में महिला सशक्तीकरण एक महत्वपूर्ण हिस्से की तरह शामिल रहा है. आजादी से पहले बंगाल प्रेसिडेंसी के मुकाबले मद्रास प्रेसिडेंसी में शिक्षा और स्वास्थ्य पर व्यय भी काफी अधिक रहा करता था. इन सामाजिक आंदोलनों और सामाजिक क्षेत्र में होनेवाले व्यय का ही नतीजा था कि दक्षिणी राज्यों में गरीब उत्तर भारतीय राज्यों के मुकाबले प्रजनन दर कम रही है.
उत्तर भारतीय राज्यों में सामाजिक और साक्षरता आंदोलन नहीं के बराबर हुए और तुलनात्मक रूप से सामाजिक क्षेत्र में व्यय काफी कम होता रहा है. यहां परिवार नियोजन कार्यक्रम भी ठीक से लागू नहीं किये गये हैं.
इसका सीधा प्रभाव शिशु और मातृत्व स्वास्थ्य पर पड़ा. इसके बावजूद बिहार में दशकीय आबादी वृद्धि दर में गिरावट आयी है, 1991-2001 में यह 28.8 फीसदी थी, जो 2001-2011 में 25.4 फीसदी रह गयी है. ध्यान रहे कि कोई भी राज्य जान-बूझकर अपनी आबादी बढ़ाने का प्रयास नहीं करता. सिर्फ इसलिए कि उसे वित्त आयोग से अधिक धन मिल सके. जनसंख्या नियोजन की तकनीकी-प्रबंधकीय रणनीति न सिर्फ प्रशासकीय सजगता की मांग करता है, बल्कि यह अधिक संसाधनों की भी मांग करता है, जिसका गरीब राज्यों में अभाव होता है.
पिछले छह सालों में (2011-12 से 2016-17) बिहार ने अपने बजट की 35 फीसदी राशि सामाजिक क्षेत्र में खर्च की है. इनमें से शिक्षा पर होनेवाला व्यय ज्यादा है. इसके बावजूद यहां शिक्षा पर होनेवाला प्रति व्यक्ति व्यय देश में सबसे कम है. यह अंततः आबादी के घनत्व से ही निर्धारित होता है.
साल 2011 की जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से वितरण से कुछ राज्यों को नुकसान हो सकता है, क्योंकि टीओआर के अनुच्छेद 7(!!) के मुताबिक 15वें वित्त आयोग उन तथ्यों को भी ध्यान में रखेगा, जिसके मुताबिक राज्यों ने इस वृद्धि दर को रोकने में कामयाबी हासिल की है.
वास्तव में 15वें वित्त आयोग में खास तौर पर कहा गया है कि जिन राज्यों ने आबादी नियंत्रित करने की दिशा में अच्छा काम किया है, उन्हें प्रोत्साहन व अतिरिक्त राशि भी दी जायेगी.
दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों से अधिक केंद्रीय कर जमा होता है, खास कर महानगरीय केंद्रों से. लेकिन उनका कर संग्रह सिर्फ उनके राज्य में होनेवाले कारोबार पर आधारित नहीं होता है. उनका पूरे भारत में कारोबार चलता है.
अधिकतर काॅरपोरेट हाउसों ने अपने हेड ऑफिस मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद या बेंगलुरु जैसे शहरों में बना रखे हैं. जहां वे आयकर की अदायगी करते हैं. जैसे, टाटा का कारोबार जमशेदपुर में है, लेकिन वह आयकर मुंबई में चुकाते हैं. आज भी महाराष्ट्र देश की नौ फीसदी आबादी के बावजूद राष्ट्रीय बाजार के 30 फीसदी हिस्से को नियंत्रित करता है.
वित्त आयोग की सिफारिशें निश्चित तौर पर दो तरह के राज्यों पर प्रभाव डालेंगी- विकसित राज्य जो केंद्रीय खजाने में अधिक राशि जमा कराते हैं, लेकिन कम पाते हैं और पिछड़े राज्य जो कम जमा करते हैं और अधिक पाते हैं.
समानता के नजरिये से यह उचित है. लेकिन राज्यों को उत्तर-दक्षिण के आधार पर बांटना उचित नहीं. क्योंकि महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और हरियाणा भी उसी श्रेणी में आते हैं, मगर ये दक्षिण के राज्य नहीं. राज्यों को विकसित और पिछड़े राज्यों की श्रेणी में ही बांटना चाहिए.
अंत में, दक्षिणी राज्यों का दावा मौजूदा संदर्भ में उचित लग सकता है, लेकिन उन्हें इतिहास के संदर्भों को भी ध्यान रखना चाहिए. आजादी से पहले के दौर में खास कर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में मद्रास और बॉम्बे प्रेसिडेंसी का घाटा बंगाल प्रेसिडेंसी के फायदे से पूरा किया जाता था.
आजादी के बाद फ्रेट इक्वलाइजेशन (भाड़ा समानीकरण) के चलते बिहार सहित उत्तर भारत के खनिज संपन्न राज्यों को कहीं ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा. इस नुकसान की शर्तों पर देश में औद्योगीकरण के लिए सब्सिडी दी गयी. अब, दक्षिण भारतीय राज्यों का यह स्टैंड भारतीय संघ में फूट का पहला कदम लगता है, देश के सुदृढ़ीकरण का नहीं.

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