कांग्रेस सबसे बड़े पराजय की ओर!
।। संजय कुमार ।। डायरेक्टर, सीएसडीएस पिछले दशकों में देश की राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल गयी हैं. अब कांग्रेस को वापसी के लिए भाजपा के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टियों से भी पार पाना होगा. इसलिए बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस इस बार के पराजय के बाद पुन: सत्ता में वापसी कर पायेगी! यदि एग्जिट […]
।। संजय कुमार ।।
डायरेक्टर, सीएसडीएस
पिछले दशकों में देश की राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल गयी हैं. अब कांग्रेस को वापसी के लिए भाजपा के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टियों से भी पार पाना होगा. इसलिए बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस इस बार के पराजय के बाद पुन: सत्ता में वापसी कर पायेगी!
यदि एग्जिट पोल और विभिन्न सव्रेक्षणों के नतीजे सही हैं, तो 2014 के चुनाव में कांग्रेस अब तक के सबसे बड़े पराजय की ओर अग्रसर है. हालांकि वास्तविक नतीजों के लिए हमें 16 मई तक इंतजार करना होगा, लेकिन विभिन्न एग्जिट पोल और सव्रेक्षणों के नतीजों का औसत निकालें, तो कांग्रेस को 22 से 24 फीसदी मत मिलने और 16वीं लोकसभा में इसके 100 से भी कम सांसद पहुंचने का अनुमान है. इससे पहले कांग्रेस को सबसे कम 114 सीटें 1999 के चुनाव में मिली थी. यदि कुल मतों में हिस्सेदारी की बात करें तो कांग्रेस को सबसे कम 25.8 फीसदी मत 1998 के चुनाव में मिले थे.
इस बार के चुनाव प्रचार में, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपने कई भाषणों में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का आह्वान किया था. हालांकि कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय की संभावनाओं के बावजूद, कुछ विश्लेषक मानते हैं कि हार-जीत तो हर चुनाव में होते ही रहते हैं और कांग्रेस के आगामी चुनावों में फिर से उभरने की उम्मीद बरकरार है.
मैं भी इस चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय को उसके अंत की संभावनाओं से जोड़ कर नहीं देख रहा हूं, फिर भी मुङो लगता है कि उसके लिए पांच साल बाद सत्ता में लौटना बेहद मुश्किल होगा. हालांकि भारत के चुनावी इतिहास पर गौर करें तो कांग्रेस हर बड़ी पराजय के बाद दोबारा उभरी है और पुन: सत्ता में पहुंची है, लेकिन इस बार देश की राजनीतिक परिस्थितियां कई मायनों में पहले से अलग हैं. कांग्रेस कभी देश की सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत थी और बहुरंगे भारत की प्रतिनिधि पार्टी मानी जाती थी. लेकिन आम लोगों के जेहन में उभरनेवाली उसकी बहुरंगी छवि 1990 के दशक में धूमिल होने लगी, खास कर मंडल के दौर के बाद. और अब ताजा रुझान संकेत दे रहे हैं कि कांग्रेस अपनी बहुरंगी छवि के कई रंग पूरी तरह खो चुकी है और उन रंगों को अपने साथ फिर से जोड़ना उसके लिए मुश्किल काम होगा.
1967 में हुए विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में हार का मुंह देखने के बावजूद, 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की थी. तब पार्टी को 44 फीसदी वोट और 352 सीटें मिली थीं. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को पहली बड़ी चुनौती का सामना 1977 के आम चुनाव में करना पड़ा था, जब इसे सिर्फ 34 फीसदी वोट मिले थे और 154 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. लेकिन 1980 के चुनाव में कांग्रेस ने फिर से बड़ी जीत हासिल की. तब पार्टी को 43 फीसदी वोट के साथ 353 सीटें मिलीं.
हालांकि 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस को फिर झटका लगा, जब वीपी सिंह के नेतृत्व में बने जनमोर्चा ने उसे कड़ी चुनौती दी. लेकिन 1991 में ही हम फिर कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के गवाह बने. तब पार्टी को 37 फीसदी वोट मिले और यह 244 सीटें जीतने में सफल रही थी. बाद में कांग्रेस करीब दो दशकों तक (1996 से 2004) सत्ता से बाहर रही, लेकिन 2004 में यह फिर से केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई और अगले दस साल तक इसने सत्ता सुख का आनंद लिया.
हालांकि 2004 और 2009 के चुनावों के बाद कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही, पर इसे पार्टी के दोबारा उभार के रूप में देखना सही नहीं होगा, क्योंकि उसे इन चुनावों में 30 फीसदी से भी कम वोट मिले थे. इन चुनावों के बाद कांग्रेस के सत्ता में पहुंचने की बड़ी वजह यह थी कि इसने अन्य पार्टियों के साथ गंठबंधन के लिए इच्छाशक्ति दिखायी और समझौते को तैयार हो गयी. मेरा मानना है कि कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किलों का दौर 1996 के आम चुनाव में ही शुरू हो गया था, जब मंडल के बाद के दौर में पार्टी का मत प्रतिशत काफी नीचे चला गया था और कई क्षेत्रीय/ राज्यस्तरीय पार्टियों का उदय हुआ, जिन्हें अलग-अलग जातियों/समुदायों के मतदाताओं का व्यापक समर्थन मिला.
1996 से पहले के चुनावी इतिहास में कांग्रेस पराजय के बाद दोबारा जीत हासिल करने में इसलिए सफल हो सकी थी, क्योंकि तब उसे मुख्यत: राष्ट्रीय पार्टी/गंठबंधन की चुनौतियों से ही पार पाना था, लेकिन मंडल के बाद के दौर में अलग-अलग राज्यों में वहां की क्षेत्रीय/ राज्यस्तरीय पार्टियां कांग्रेस की राह में बड़ी चुनौती पेश करने लगीं. इस वक्त भी देश की राजनीतिक स्थिति पर गौर करें तो कांग्रेस को पीछे धकेलने की कोशिशें दोतरफा हो रही हैं. एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर जहां भाजपा की ओर से ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का आह्वान हो रहा है, वहीं राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां भी उसे उभरने का कोई मौका नहीं दे रही हैं.
क्षेत्रीय पार्टियों के कारण जहां दलितों, अन्य पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के बीच कांग्रेस का जनाधार खत्म हो रहा है, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के उभार ने साबित किया है कि अगड़ी जातियों के बीच भी कांग्रेस की लोकप्रियता खत्म हो गयी है. ओबीसी के बीच कांग्रेस का जनाधार खिसकने की शुरुआत 1990 के दशक के मध्य में हुई, जब उत्तर प्रदेश में बसपा एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी. मंडल के बाद के दौर में ओबीसी के बीच क्षेत्रीय पार्टियों की पकड़ लगातार बढ़ती गयी और कांग्रेस अपने इस समर्थन आधार को वापस पाने में सफल नहीं हो सकी. अब इस चुनाव में संकेत हैं कि अन्य पिछड़ी जातियों के मतदाताओं ने बड़ी संख्या में भाजपा के पक्ष में मतदान किया है. यही नहीं, मौजूदा रुझान इशारा कर रहे हैं कि दलितों के बीच कांग्रेस के बचे-खुचे जनाधार में भी भाजपा ने मजबूत पैठ बनायी है.
जहां तक मुसलमानों के बीच पकड़ का सवाल है, इस बात के विश्वसनीय आंकड़े मौजूद नहीं हैं कि 1970 और 1980 के दशक में कितने फीसदी मुसलमानों ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया था, लेकिन 1990 के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर केवल एक तिहाई मुसलमानों ने ही कांग्रेस को वोट दिया था. अगले दो दशकों में धीरे-धीरे मुसलमानों का समर्थन भी कांग्रेस से दूर होता गया और क्षेत्रीय/ राज्यस्तरीय पार्टियों ने इस पर अपनी पकड़ बढ़ायी. हालांकि ऐसे संकेत नहीं हैं कि 2014 में कांग्रेस को मुसलमानों के वोट 2009 की तुलना में कम मिले हैं, लेकिन मुसलमानों के बीच उसकी लोकप्रियता बढ़ने के भी संकेत नहीं हैं. कई राज्यों में आज भी क्षेत्रीय पार्टियां ही मुसलमानों की पहली पसंद हैं.
कुल मिलाकर कांग्रेस भले ही 1970 और 1980 के दशक की या फिर 1996 की पराजय के बाद पुन: सत्ता पाने में सफल रही, लेकिन पिछले दशकों में देश की राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल गयी हैं. अब कांग्रेस को वापसी के लिए भाजपा के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टियों की चुनौतियों से भी पार पाना होगा. इसलिए बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस इस बार के पराजय के बाद पुन: सत्ता में वापसी कर पायेगी, और यदि हां, तो इसमें कितना लंबा वक्त लगेगा!