गहराता सीरिया संकट
सीरिया पर अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के ताजा मिसाइल हमलों ने सीरिया के गृहयुद्ध और अरब की राजनीति को एक खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है. एक ओर ये देश राष्ट्रपति बशर अल-असद पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर रूस और ईरान ने सीरिया का पक्ष लेते […]
सीरिया पर अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के ताजा मिसाइल हमलों ने सीरिया के गृहयुद्ध और अरब की राजनीति को एक खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है.
एक ओर ये देश राष्ट्रपति बशर अल-असद पर रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर रूस और ईरान ने सीरिया का पक्ष लेते हुए गंभीर नतीजों की चेतावनी दे डाली है. सीरियाई सरकार इन हमलों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का घोर उल्लंघन मान रही है.
एक बहस इस बात पर भी है कि क्या सचमुच सीरिया ने अपने ही नागरिकों पर सारीन या क्लोरीन जैसे रासायनिक पदार्थों से हमला किया है? सारीन के बारे में अमेरिका भी आश्वस्त नहीं है तथा क्लोरीन की व्यापक उपलब्धता और उपयोग के मद्देनजर इसे घातक श्रेणी में रखने पर भी सवाल उठ रहे हैं.
लेकिन, क्या इन हमलों को सिर्फ इस आधार पर देखा जा सकता है कि सीरियाई नागरिकों की हिफाजत के लिए अमेरिका और अन्य देशों ने यह कार्रवाई की है? मध्य-पूर्व में करीब डेढ़ दशक से भयावह उथल-पुथल का माहौल है. इलाके के अनेक देशों में युद्धों, हमलों और हिंसक संघर्षों में लाखों लोग मारे जा चुके हैं तथा लाखों लोग विस्थापित हैं.
अशांत क्षेत्रों में फंसे लोग जीवन-यापन के बुनियादी साधनों के अभाव में जी रहे हैं. ताकतवर देशों की खेमेबाजी, अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बेपरवाही तथा अरब देशों की आपसी दुश्मनी के कारण अमन-चैन की कोशिशें असफल ही रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुत्तेरेस ने मौजूदा स्थिति को ‘शीत युद्ध की वापसी’ कहा है. इस बयान को पूरी दुनिया को बेहद गंभीरता से लेना चाहिए.
हालांकि पुराने शीत युद्ध के खात्मे के बावजूद हिंसा, शोषण और युद्ध से दुनिया को पूरी तरह से निजात नहीं मिली है, पर यह भी सच है कि तकनीक, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण लोगों और देशों की नजदीकी बीते तीन दशकों में बढ़ी है. ऐसे में अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे आर्थिक और सैन्य शक्ति से लैस अहम देशों की आपसी खींचतान का बढ़ना वैश्विक स्तर पर बड़े नुकसान का कारण बन सकता है. ऐसे में जरूरी है कि इस संघर्ष में शामिल सभी प्रमुख देश सुलह-समझौते के लिए कोशिश करें, जैसा कि गुत्तेरेस और कुछ नेताओं ने मांग की है. अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में बिना किसी पुख्ता सबूत और संयुक्त राष्ट्र की सहमति के हमला करने के फैसले की खूब आलोचना भी हुई है.
अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, ईरान तथा मध्य-पूर्व के परस्पर विरोधी खेमों में बंटे देशों के साथ भारत के संबंध अच्छे हैं. इनमें तकरार बढ़ने से हमारे आर्थिक और राजनीतिक हितों का भी नुकसान हो सकता है.
तेज से बढ़ती अर्थव्यवस्था तथा वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण होने के कारण भारत को भी इस संकट का शांतिपूर्ण समाधान निकालने में कूटनीतिक सक्रियता दिखानी चाहिए. बहरहाल, अभी संबद्ध पक्षों के रवैये में नरमी के संकेत हैं. उम्मीद है, कोई सकारात्मक राह हमवार होगी.