दंड विधान में बदलाव हो
यह मात्र उन्नाव और कठुआ कांड से उपजा रोष नहीं है. कई दशकों से बलात्कार एक गंभीर समस्या बनी हुई है, किंतु अब जनता सुरक्षा चाहती है. लोकतंत्र में लोक ही सुरक्षित न हो, तो तंत्र का क्या औचित्य है. हमारे कानून निर्माताओं को इस बदली हुई परिस्थिति में अंग्रेजों के पुराने कानूनों और दंड […]
यह मात्र उन्नाव और कठुआ कांड से उपजा रोष नहीं है. कई दशकों से बलात्कार एक गंभीर समस्या बनी हुई है, किंतु अब जनता सुरक्षा चाहती है. लोकतंत्र में लोक ही सुरक्षित न हो, तो तंत्र का क्या औचित्य है.
हमारे कानून निर्माताओं को इस बदली हुई परिस्थिति में अंग्रेजों के पुराने कानूनों और दंड विधानों पर गंभीरता से मंथन करना चाहिए. आज समाज बदल गया है. अपराध का स्वरूप और अपराधी का मिजाज बदल गया है.
कोई भी कानून या दंड विधान तभी सार्थक कही जा सकती है, जब वह अपराध विशेष को रोकने में सफल हो. बलात्कारियों को मानव की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. हमारी बेटियां, बहनें तभी सुरक्षित अनुभव करेंगी, जब समाज ऐसे दरिंदों का पक्ष लेना छोड़ कर, उनके लिये फांसी की मांग करे.
कोई अगर सिर्फ इसलिए किसी अपराधी का समर्थन करता है, क्योंकि वो अपनी जाति या धर्म का है, तो वह अपराध को बढ़ावा देता है. बात सिर्फ हमारी बेटियों की सुरक्षा की नहीं है, बल्कि हमारी बेटियों के भविष्य की भी है.
प्रदीप कुमार रजक, जमशेदपुर