।। प्रभात कुमार रॉय।।
(राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद् के पूर्व सदस्य)
मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री को तौर पर अलविदा कहने का वक्त करीब है. देश के राजनीतिक इतिहास में मनमोहन सिंह की एक कामयाब वित्त मंत्री के तौर पर सदैव सराहना की गयी. नरसिम्हा राव सरकार में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीति ने 1990 के दशक में राष्ट्र को एक क्रांतिकारी दिशा देकर कोटा-परमिट राज से बाहर निकाला और औद्यौगिक विकास की राह को सुगम बनाया था. यूपीए-1 के दौर में भी अमेरिका के साथ परमाणु करार के जटिल सवाल पर उन्होंने अपनी हुकूमत को बहादुरी के साथ दावं पर लगाया और फिर फतेहयाब होकर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़े थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए की कामयाबी का सेहरा मनमोहन सिंह के सिर पर ही बांधा गया था. एक ईमानदार, समझदार और भले इनसान के रूप में मनमोहन सिंह को अपने राजनीतिक विरोधियों की सद्भावना भी सदैव हासिल हुई. लेकिन इतिहास में स्वयं को एक कामयाब प्रधानमंत्री के तौर दर्ज कराने के लिए केवल सदाशयता पर्याप्त नहीं हुआ करती. राजनीतिक दक्षता, शौर्य, कुशल कूटनीतिक समझ और आम लोगों के लिए गहन सरोकार किसी प्रधानमंत्री के असरदार होने की आवश्यक शर्ते मानी जाती हैं.
सर्वविदित है कि विगत वर्षो में भारत सरकार की सत्ता की बागडोर प्रधानमंत्री के हाथों में न होकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पास ही रही. यही कारण है कि मनमोहन सिंह राजनीतिक रूप से एक प्रधानमंत्री की कमजोर छवि का निर्माण करते रहे. यूपीए-1 के दौरान अमेरिका के अखबार व मैगजीन मनमोहन सिंह की गतिशील लीडरशिप की प्रशंसा के पुल बांधा करते थे. किंतु हाल में जानी-मानी अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ द्वारा मनमोहन सिंह को ‘अंडर अचीवर’ प्रधानमंत्री करार दिया गया. ‘टाइम’ की अत्यंत तल्ख टिप्पणी के बाद विपक्ष ने आलोचना के तीखे बाण निकाल लिये. मनमोहन सिंह का अपने मंत्रिमंडल पर नियंत्रण कभी प्रतीत नहीं हुआ. देश की आर्थिक विकास दर का बहुत ढोल पीटा गया, किंतु इसका फायदा प्राप्त हुआ एक वर्ग विशेष को, जो कि पहले से ही संपन्न था. बढ़ी हुई विकास दर से देश के किसान और मजदूरों की किस्मत बिल्कुल नहीं बदली. खेतीबाड़ी और छोटे उद्योगों की घनघोर उपेक्षा ने मेहनतकशों के हालात को और अधिक बदतर बना दिया है.
मनमोहन सिंह के रूप में एक ईमानदार प्रधानमंत्री पाकर उम्मीद जगी थी कि भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए पुलिस, प्रशासनिक व न्यायिक सुधारों को लागू किया जायेगा, जिनकी अनुशंसा विभिन्न आयोगों द्वारा समय-समय पर की गयी. लेकिन मनमोहन सिंह हुकूमत ने चौतरफा सुधारों की प्रबल आशाओं पर पानी फेर दिया. आर्थिक सुधारों का प्रभाव भी सकारात्मक साबित नहीं हो पाया. शासकीय भ्रष्टाचार ने देश के आर्थिक विकास में भयानक सेंध लगा दी. भ्रष्टाचार का खात्मा करने का कोई संजीदा उपाय सरकार कदाचित नहीं कर सकी. लोकपाल बिल पारित करने में मनमोहन सरकार ने अत्यंत विलंब कर दिया गया. यहां तक कि महत्वाकांक्षी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भी शासकीय भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी और गांव के गरीबों को खास राहत प्रदान नहीं कर पायी.
मनमोहन सिंह कदाचित मूलत: राजनेता नहीं रहे, वह एक विद्वान अर्थशास्त्री रहे, जिनके व्यक्तित्व पर वक्त और हालात द्वारा राष्ट्र का नेतृत्व करने की जिम्मेवारियां थोप दी गयी. लेकिन निरंतर बढ़ी महंगाई के सामने उनका आर्थिक ज्ञान काम न आने के कारण भी मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा गिरती रही. यूपीए-2 के कार्यकाल में समस्त भारत घोटालों, विशाल भ्रष्टाचार और विदेशों में संग्रहित अकूत काली दौलत की कुटिल गाथाओं से विषादित और प्रकंपित हो उठा. बीते कुछ वर्षो में उजागर हुए घोटालों ने तो भारत में शासकीय भ्रष्टाचार के तमाम पुराने रिकार्ड ध्वस्त कर दिये. लाखों करोड़ रुपयों के घोटालों की दहलानेवाली खबरों को सुन कर जनता हतप्रभ व विचलित हो उठी. उसकी बेचैनी राष्ट्रव्यापी जनआंदोलनों में स्पष्ट तौर पर दिखी. राष्ट्र को भारत के सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया अदा करना चाहिए, जिसने संगीन मामलात का संज्ञान लेकर शक्तिशाली राजनेताओं को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.
आंतरिक सुरक्षा की बात करें तो मनमोहन सिंह हुकूमत के दौर में आतंकवाद ने कश्मीर घाटी से बाहर निकल कर देश के अनेक प्रांतों में बर्बर खूनी कहर ढाया, किंतु इससे लोहा लेने का कोई निर्णायक संकल्प सरकार द्वारा प्रदर्शित नहीं किया गया. आतंकवाद से लड़ने में सक्षम खुफिया तंत्र को और ताकतवर बनाने की कोई पहल नहीं की जा सकी. मनमोहन सिंह ने अपने बयानों में नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे गंभीर चुनौती करार दिया, लेकिन उनकी हुकूमत नक्सलवाद को काबू करने के लिए कोई कारगर कार्रवाई नहीं कर सकी.
कुल मिलाकर इतिहास मनमोहन सिंह को एक भला, ईमानदार और समझदार, किंतु नाकाम व प्रभावहीन प्रधानमंत्री के तौर ही दर्ज करेगा.