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रंगीन दूरदर्शन की सालगिरह

शफक महजबीन टिप्पणीकार दूरदर्शन को रंगीन हुए आज 36 साल हो गये. महज कुछ ही कार्यक्रमों के साथ शुरू होनेवाला दूरदर्शन 25 अप्रैल, 1982 से रंगीन हो गया था. तब हम सब ने इसे खूब पसंद किया था. सुबह के ‘चित्रहार’ से लेकर शाम का ‘टी टाइम मनाेरंजन’ हो या फिर सप्ताह में एक दिन […]

शफक महजबीन

टिप्पणीकार

दूरदर्शन को रंगीन हुए आज 36 साल हो गये. महज कुछ ही कार्यक्रमों के साथ शुरू होनेवाला दूरदर्शन 25 अप्रैल, 1982 से रंगीन हो गया था. तब हम सब ने इसे खूब पसंद किया था. सुबह के ‘चित्रहार’ से लेकर शाम का ‘टी टाइम मनाेरंजन’ हो या फिर सप्ताह में एक दिन फिल्म के साथ हमारी जिंदगी का अक्स दिखानेवाले सीरियल हों, सारे कार्यक्रम खूब पसंद किये जाते थे.

दूरदर्शन का उद्देश्य था- ज्ञान-विज्ञान, खेल-कूद, खेती-किसानी, सूचना-समाचार और विभिन्न जानकारियों को जन-जन तक पहुंचाना, साथ ही खेल-खेल में स्वस्थ मनोरंजन से बच्चों का ज्ञानवर्धन करना.

भारत में दूरदर्शन चैनल के प्रसारण की शुरुआत दिल्ली में सितंबर, 1949 में हुई थी. रंगीन दूरदर्शन के बाद के सालों में निजी टीवी चैनलों का विस्तार शुरू हुआ और उन चैनलों के जरिये नये-नये कार्यक्रमों की भी शुरुआत हुई.

जैसे-जैसे कार्यक्रमों में आधुनिकता आती गयी, वैसे-वैसे टीवी ने हमारी जिंदगी में दखल देना शुरू कर दिया. मनोरंजन के नाम पर अपराध खत्म करनेवाले कार्यक्रमों की बाढ़ आती गयी. किसी अपराध पर काबू पाने की कहानी अगर दिखायी जायेगी, तो यह भी दिखाना पड़ेगा कि अपराध को अंजाम कैसे दिया गया. जाहिर है, कोई चाहे तो वह इसके सकारात्मक पहलू को न सीख, नकारात्मक पहलू की ओर ज्यादा आकर्षित हो सकता है. अक्सर होता भी यही है.

मनोरंजन चैनलों के साथ-साथ यही बात न्यूज चैनलों पर भी लागू हुई. उन पर भी खबरें दिखाने और किसी मुद्दे पर जोरदार बहस करने के तौर-तरीकों में बदलाव आते गये. कई दफा तो ये चैनल बिना किसी ठोस स्रोत के बेसिर-पैर या झूठी खबरें चलाते हैं.

और हम लोग मान लेते हैं कि जाे कुछ दिखाया जा रहा है, वही सच है. अब तो आलम यह है कि यह ‘बुद्धू बक्सा’ हमें सचमुच का बुद्धू बनाये जा रहा है. शायद इसलिए रवीश कुमार कहते हैं कि टीवी देखने की आदत बदल दीजिए, नहीं तो टीवी आपको बदल देगा.

उदारवाद के बाद भारत में जब तेजी से उपभोक्तावादी संस्कृति बढ़ी, तो बाजार ने इस बुद्धू बक्से का ही सहारा लिया और हम अनायास ही अपनी जिंदगी की हर छोटी-बड़ी चीज के लिए टीवी से ही संचालित होने लगे. हम क्या खाएं, क्या पहनें, क्या लगाएं, कौन सा ब्यूटी प्रोडक्ट इस्तेमाल करें, कहां जाएं, कौन सी गाड़ी चलाएं, यानी जिंदगी के हर मोड़ पर हमें टीवी ही बताने लगा है कि हम क्या करें. यह ‘टीवी कल्चर’ का मजबूत पक्ष था. जाहिर है, बाजारवाद ने टीवी के जरिये हम तक अपनी ऐसी दखल मजबूत कर ली है कि हम उपभोग की संस्कृति के गुलाम बनते गये. तभी तो, किसी चीज का विज्ञापन देखकर ही हम उसे खरीद लेते हैं, यह जाने बगैर कि वह सही है या नहीं.

आज हम पूरी तरह से टीवी चैनल (न्यूज और मनोरंजन दोनों) पर निर्भर हैं. यहां तक कि हमारे जीवन के साथ-साथ समाज और राजनीति की दशा-दिशा तक इसी से तय हो रही है. ऐसा नहीं है कि टीवी का सिर्फ नकारात्मक पक्ष ही है, पर सकारात्मक पक्ष भी हैं, बस जरूरत है उन पर गौर करने की.

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