अच्छा है अफस्पा का हटाया जाना
II डॉ अनुज लुगुन II सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in साल 2000 की घटना थी. मणिपुर के मलोम कस्बे के बस स्टैंड में कुछ लोग अपने गंतव्य के लिए बस का इंतजार कर रहे थे, तभी वहां सेना पहुंची और अचानक दस लोगों को हिरासत में लेकर उन्हें गोलियों से भून डाला. […]
II डॉ अनुज लुगुन II
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
साल 2000 की घटना थी. मणिपुर के मलोम कस्बे के बस स्टैंड में कुछ लोग अपने गंतव्य के लिए बस का इंतजार कर रहे थे, तभी वहां सेना पहुंची और अचानक दस लोगों को हिरासत में लेकर उन्हें गोलियों से भून डाला.
वहीं इरोम शर्मीला नाम की एक युवती भी थी, जो इस घटना को देख रही थी. उस घटना से विचलित होकर उसने सैन्य विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए- अफस्पा) को हटाने के लिए सोलह साल तक भूख अनशन किया. इसी तरह 2004 की घटना है. जब जवानों ने मनोरमा नाम की एक युवती का बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी. इसके विरोध में असम राइफल्स के मुख्यालय के बाहर मणिपुरी महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था.
इस तरह की घटनाओं ने सैन्य विशेषाधिकार कानून को और अधिक विवादित बना दिया. इस कानून से सबसे ज्यादा मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ और पूर्वोत्तर के नागरिक इस कानून को हटाये जाने के विरुद्ध लगातार संघर्ष करते रहे हैं. गौरतलब है कि इस सैन्य कानून की आड़ में सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ हुए हैं.
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और सीबीआई को फटकार लगायी और पिछले वर्ष साल 2000 से 2012 तक सेना और पुलिस द्वारा की गयी 1,528 गैर-न्यायिक हत्याओं के मामलों की जांच का निर्देश भी दिया. अब सरकार मेघालय से और अरुणाचल प्रदेश से उसके कुछ जिलों को छोड़कर अाफ्स्पा को हटा दिया है.
साल 1958 में बना यह कानून पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में शांति और सुरक्षा स्थापित करने के उद्देश्य से अलग-अलग समय पर लगाया गया था.
इस कानून के द्वारा सेना को विशेष अधिकार दिया गया, जिसके तहत वह बिना वारंट के शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार और पूछताछ कर सकती है. 2004 में मनोरमा हत्याकांड के बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी, जिसने अपनी अनुशंसा में इस कानून को ‘दमन का प्रतीक’ बताते हुए इसे निरस्त कर देने की मांग की थी. लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस अनुशंसा को खारिज कर दिया था.
यद्यपि इसके बाबजूद 2004 में ही मणिपुर सरकार ने कुछ जिलों से इस कानून को हटा दिया था. त्रिपुरा की तत्कालीन माणिक सरकार ने 2015 में उसे त्रिपुरा से हटा दिया था. साल 2015 में नागा विद्रोही गुट एनएससीएन- आइएम महासचिव टी मुईवा और सरकार के बीच हुई बातचीत के बावजूद इसे नागालैंड से नहीं हटाया गया है.
देश की सुरक्षा के नाम पर बने इस कानून से सबसे ज्यादा मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले प्रकाश में आये हैं. अभी यह जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा विवादित है. जब सैन्य विशेषाधिकार लागू हो जाता है, तो आम नागरिकों के अधिकार संकुचित होने लगते हैं. यह जनविरोधी होता है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसका हमेशा नागरिकों के मौलिक अधिकारों से टकराव होता है. इसका सबसे दुखद पहलू यह होता है कि जिन क्षेत्रों में इस तरह के कानून होते हैं, वहां मीडिया भी एक हद तक सीमित हो जाती है, या एकपक्षीय हो जाती है. इससे सही सूचनाएं नहीं आती हैं. सुरक्षा और शांति के नाम पर ‘प्रोपेगंडा’ होने लगता है, जिससे एक ओर सैन्य दमन का ‘जस्टिफिकेशन’ किया जाता है, वहीं दूसरी ओर पीड़ित पक्ष बहुत आसानी से ‘उग्रवादी’ या ‘आतंकी’ घोषित कर दिया जाता है.
ऐसे में ‘गिरफ्तारी’ और ‘एनकाउंटर’ बहुत आसान हो जाता है, जिसकी सुनवाई भी नहीं होती. पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही फर्जी मुठभेड़ों की 1,528 मामलों की जांच के निर्देश दिये थे.
अफस्पा सुरक्षा और शांति के तर्क पर लागू किया जाता है. सरकार बाहरी घुसपैठ और आंतरिक विद्रोह की संभावनाओं से इसे लागू करती है.
इसी तर्क पर इसे मान्य किया जाता है. लेकिन इस पर हमें बीपी जीवन रेड्डी समिति की अनुशंसा को समझना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि शांति और सुरक्षा कायम करने के लिए सेना रहे, लेकिन यह कानून हटा लिया जाना चाहिए.
सेना का होना एक बात है और सेना को खुली छूट देना दूसरी बात है. मानवाधिकार संगठन इस बात की कड़ी आलोचना करते रहे हैं कि कैसे सैन्य बलों को सशस्त्र खुली छूट दी जा सकती है? ऐसे में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का औचित्य क्या रह जायेगा?
अब यदि धीरे-धीरे इसे पूर्वोत्तर से हटाने की बात आगे बढ़ रही है, तो इसे इस रूप में भी देखा जाये कि इससे वहां नागरिक अधिकार बहाल होंगे और लोकतांत्रिक ढांचा मजबूत होगा. पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक मूल्य खस्ताहाल हैं. पूर्वोत्तर के राज्य पहले से ही उपेक्षित महसूस करते रहे हैं.
उनकी राय में केंद्र यानी दिल्ली दोयम दर्जे का व्यवहार करता है. अफस्पा से उनकी यह धारणा और मजबूत हुई है. ऐसे में सुरक्षा और शांति के नाम पर बहुत समय तक सैन्य दबाव नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि इसका दुष्परिणाम यह होगा कि इससे भारतीय राज्य के प्रति अविश्वास और असंतोष और ज्यादा बढ़ेगा.
पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों से अफस्पा को हटाने की बात यह उम्मीद जगाती है कि भविष्य में यह देश के सभी क्षेत्रों से हटा लिया जायेगा. ऐसा होना ही हमारे लोकतांत्रिक होने का प्रमाण होगा, अन्यथा हम अब भी उसकी मंजिल से काफी दूर हैं.