पत्नी, ग्रीन टी और बुद्धिजीवी
अंशुमाली रस्तोगी व्यंग्यकार मेरा मोहल्ला ‘बुद्धिजीवियों का मोहल्ला’ कहलाता है. हर किस्म का बुद्धिजीवी आपको यहां मिलेगा. उनके रहने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, चलने-फिरने, बातचीत का रंग-ढंग सामान्य व्यक्तियों से बिल्कुल अलग है. हर वक्त उन्हें किसी न किसी ख्याल में खोये हुए या फिर किसी राजनीतिक व सामाजिक मुद्दे पर चिंता जतलाते हुए ही पाता हूं. […]
अंशुमाली रस्तोगी
व्यंग्यकार
मेरा मोहल्ला ‘बुद्धिजीवियों का मोहल्ला’ कहलाता है. हर किस्म का बुद्धिजीवी आपको यहां मिलेगा. उनके रहने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, चलने-फिरने, बातचीत का रंग-ढंग सामान्य व्यक्तियों से बिल्कुल अलग है. हर वक्त उन्हें किसी न किसी ख्याल में खोये हुए या फिर किसी राजनीतिक व सामाजिक मुद्दे पर चिंता जतलाते हुए ही पाता हूं. ऐसा सुना है, बुद्धिजीवियों को सामान्य मनुष्य से ‘कुछ अलग’ हटकर बुद्धि मिली होती है. इसीलिए शायद लोग उन्हें बुद्धिजीवी कहते हैं!
एक ही मोहल्ले में रहते हुए भी मैं न के बराबर ही किसी बुद्धिजीवी से मिलने की कोशिश करता हूं. मिलना तो दूर, मुझे तो उनकी परछाई तक से डर लगता है. सोचता हूं, कहीं दो-चार मुलाकातों में अगर उनकी बुद्धिजीविता का जरा-सा भी असर मुझमें आ गया, तो मैं कहीं नहीं रहूंगा. मुझे चोर-डाकू बनना मंजूर है, किंतु बुद्धिजीवी नहीं. बड़े लफड़े हैं इस राह में.
लेकिन, मेरी पत्नी मोहल्ले के प्रत्येक बुद्धिजीवी से खासा प्रभावित है. शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता हो, जिस दिन वह मोहल्ले के किसी बुद्धिजीवी से न मिलती हो और उनके किस्से मुझे न सुनाती हो. देखा-दाखी उसमें भी बुद्धिजीवियों वाले गुण धीरे-धीरे कर प्रवेश करने लगे हैं.
हालांकि, मैंने पत्नी को कई दफा बोला कि वह बुद्धिजीवियों के चक्करों में ज्यादा न पड़े. मगर वह सुनने को कतई तैयार नहीं. चूंकि पत्नी है, इस नाते उससे अधिक कुछ कह भी नहीं सकता.
इधर कई दिनों से, मेरे न चाहने के बावजूद भी, पत्नी मुझ पर ग्रीन टी पीने का दवाब बनाये हुए है. उसका सीधा-सा तर्क है, जब मोहल्ले के बुद्धजीवी लोग ग्रीन टी पीते हैं, तो तुम भी पियो! क्या हर्ज है? ग्रीन टी कोई जहर तो नहीं. जबकि, यह बात पत्नी बहुत अच्छे से जानती है कि मैं सामान्य टी भी बमुश्किल ही पी पाता हूं. ऐसे में ग्रीन टी पीने का फरमान, मेरे ऊपर वज्रपात से कम नहीं.
हाल में ही उस खबर को भी पत्नी को दिखाया, जिसमें ग्रीन टी पीना लिवर के लिए खतरनाक बताया गया है. मगर नहीं, उसने तो अजीब जिद ठान रखी है कि मैं ग्रीन टी ही पिऊं. उसे मेरे ग्रीन टी पीने में मुझमें बुद्धिजीवी होने जैसी फिलिंग आती है. मानो- ग्रीन टी बनायी ही बुद्धिजीवियों के लिए गयी हो!
मैं जिस कीचड़ में सनने से बचना चाहता हूं, पत्नी मुझे उसी में सनाना चाहती है. उसे क्या पता बुद्धिजीवी होना कितनी जिम्मेदारी का काम है. कितनों की क्या-क्या नहीं सुननी पड़ती. हर वक्त अपने दिमाग को खर्च करते रहना और जिगर को जलाये रखना होता है. मुझ जैसा साधारण-सा लेखक भला बुद्धिजीवी होने का बोझ कैसे निभा पायेगा.
ग्रीन टी पीकर ही अगर मुझे बुद्धिजीवी होना होता, तो यह कर्म मैं जाने कब का कर चुका होता. मुझे तो ग्रीन टी के स्वाद ही नहीं, शक्ल तक से भी नफरत है. लेकिन पत्नी को कौन समझाये? खैर, पिऊंगा मन मार के. पत्नी का आदेश गुरु के आदेश से कहीं ऊंचा होता है!