चुनावी वैर को भूल आगे बढ़ने का वक्त

संसाधनों में किसको क्या और कितना मिलेगा, लोकतांत्रिक राजनीति यह फैसला चुनावों के जरिये एक सरकार चुन कर करती है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में फिर से एक नयी सरकार बनने की घड़ी आ गयी है. संभव है कि आज जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे हों, तब तक नयी सरकार की तसवीर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 16, 2014 3:51 AM

संसाधनों में किसको क्या और कितना मिलेगा, लोकतांत्रिक राजनीति यह फैसला चुनावों के जरिये एक सरकार चुन कर करती है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में फिर से एक नयी सरकार बनने की घड़ी आ गयी है. संभव है कि आज जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे हों, तब तक नयी सरकार की तसवीर बहुत कुछ साफ हो चली हो. 80 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं की तादाद वाला यह देश फैसले के इस मुकाम तक बड़े भावोद्वेलन के बाद पहुंचा है.

बात चूंकि सरकार यानी उस संस्था को चुनने की थी, जो जीवन जीने के लिए जरूरी संसाधनों का बंटवारा करेगी, इसलिए हर बार की तरह यह चुनाव भी देश के मन-मानस के लिए बहुत भारी साबित हुआ. समाज का हर हितसमूह चाहता है कि संसाधनों के बंटवारे में उसे ही वरीयता दी जाये. राजनीतिक दल इस इच्छा को हवा देकर अपने पक्ष में हितसमूहों की गोलबंदी करते हैं. ऐसे में ठीक ही, चुनावों की तुलना जंग से की जाती है और यह भी कहा जाता है कि जंग के मैदान में हर पैंतरा जायज है. लेकिन जीतने के मकसद से हर पैंतरे को जायज मानने की सोच बहुत कुछ ऐसा भी करवाती है, जिसे सामान्य परिस्थितियों में बदअमनी फैलाना माना जायेगा. इस बार के चुनाव-प्रचार में यह सब कुछ ज्यादा ही देखने को मिला. नेताओं ने प्रचार की शुरुआत ‘विकास’ के वायदे से की, लेकिन आखिर में उनकी जुबान ऐसी फिसली कि बात जाति-धर्म तक चली आयी.

एक-दूसरे को काटने-मारने की बातें भी नेतागण बेखौफ होकर कहते पाये गये. दूसरे को नीचा दिखाने के लिए गोपनीय और नितांत निजी प्रसंगों को उछालने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया. प्रतिस्पर्धी हितसमूहों को अपने पक्ष में करने के लिए पार्टियों और नेताओं की तरफ से काफी कुछ ऐसा किया गया, जिससे मतदाताओं के मन में एक-दूसरे के प्रति तात्कालिक तौर पर वैर का भाव जगा और जाति-धर्म के जो परंपरागत पूर्वग्रह दबे रहते हैं, वे उभार पर आ गये. लेकिन प्रतिस्पर्धा का वह वक्त अब बीत चला है और भारत की नयी सरकार के लिए एक बार फिर से जनादेश आ चुका है. इसलिए अब समय जनादेश को सिर नवाते हुए स्वीकारने और बीते दो माह की तमाम आपसी कटुता को भुला कर देशहित में सामूहिक रूप से सोचने और आगे बढ़ने का है.

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