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सत्ता का पूरा ब्लू प्रिंट है मोदी के पास!

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी ।। वरिष्ठ पत्रकार खान साहेब, आप मोदी को समझने से पहले यह समझ लीजिए कि वे संघ परिवार के प्रचारक रह चुके हैं. मौका मिले तो देखियेगा. कुर्ते की ऊपरी जेब में एक छोटी डायरी और पेंसिल जरूर रखते हैं. जहां जो अच्छी जानकारी मिले, उसे नोट करते हैं.. खान साहेब […]

।। पुण्य प्रसून वाजपेयी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

खान साहेब, आप मोदी को समझने से पहले यह समझ लीजिए कि वे संघ परिवार के प्रचारक रह चुके हैं. मौका मिले तो देखियेगा. कुर्ते की ऊपरी जेब में एक छोटी डायरी और पेंसिल जरूर रखते हैं. जहां जो अच्छी जानकारी मिले, उसे नोट करते हैं..

खान साहेब ने छह मई को लखनऊ से हवाई जहाज पकड़ा और बनारस पहुंच कर पांच दिनों तक गलियों से गांव तक की धूल फांकते रहे कि नरेंद्र मोदी चुनाव न जीतने पाएं. उधर, राजकोट से राजू भाई दिल्ली होकर सात मई को बनारस पहुंचे और बीजेपी वर्करों से लेकर गलियों तक में अलख जगाते रहे कि मोदी की जीत के मायने कितने अलग हैं. इसमें खान साहेब के 65 हजार, जबकि राजू भाई के 50 हजार रुपये फुंक गये. दोनों ने रुपये अपनी जेब से लुटाये. किसी पार्टी या उम्मीदवार ने उनके दर्द या खुशी को नहीं देखा. दोनों ने कभी नहीं सोचा कि आखिर क्यों और कैसे वे मोदी के विरोध या समर्थन में बनारस पहुंच गये. बस आ गये. 12 मई की देर शाम लौटते वक्त बनारस हवाई अड्डे पर संयोग से दोनों की मुलाकात हो गयी. दोनों ने एक-दूसरे को लखनऊ और राजकोट आने का न्योता दिया.

तय हुआ कि जब कोई राजकोट या लखनऊ जायेगा तो पहले से बता देगा, क्योंकि तैयारी पहले से हो तभी मंजिल मिलती है. तैयारी की बात राजू भाई ने कही, तो खान साहेब चौंके- तो बनारस से लड़ना भी पहले से तय था? सिर्फ लड़ना नहीं हुजूर, मोदीजी की पूरी कवायद तय थी. आप खुद ही सोचिये, अगर ब्लू प्रिंट तैयार नहीं होता, तो मोदीजी 45 दिनों में कभी पल भर के लिए भी नहीं भटकते? राजू भाई, क्या पीएम पद की उम्मीदवारी से लेकर 12 मई की शाम तक का पूरा ब्लू प्रिंट तैयार था? सिर्फ प्रचार खत्म होने तक का ही नहीं, पीएम बनते ही क्या-क्या कैसे-कैसे करना है, पहले छह महीने में और अगले छह महीने में क्या-क्या प्राथमिकताएं होंगी, हर काम का ब्लू प्रिंट तैयार है.

तो क्या बाबा रामदेव से लेकर गिरिराज तक का बयान भी ब्लू प्रिंट का ही हिस्सा था? नहीं-नहीं हुजूर, ब्लू प्रिंट तो मोदीजी ने अपने लिए तैयार किया था. दायें-बांयें से चूक हो रही थी, तो उनकी जिम्मेवारी कौन लेता? पार्टी ने ली भी नहीं. लेकिन मोदी कहीं चूके हों या कभी ऐसा महसूस हुआ हो कि मोदीजी जो चाह रहे हैं वह नहीं हो रहा है, तो आप बताइये? लेकिन राजू भाई, यह कहने की जरूरत पड़ जाये कि हमसे डरें नहीं, या हम सत्ता में आये तो हर किसी के साथ बराबरी का सलूक होगा, इसका क्या मतलब है? संविधान तो हर किसी को बराबर मानता ही है और आपने भी तो सीएम बनते वक्त ही संविधान की शपथ ले ली थी?

खान साहेब, बीते साठ बरस के इतिहास को भी तो पलट कर देख लीजिए, कि कौन सत्ता में रहा और किसने बराबरी का हक किसे नहीं दिया. आपको मौका लगे तो इसी गरमी में गुजरात आइये. आपके यहां के मालदा और महाराष्ट्र के अल्फांसो की तासीर वाला गुजरात का कैसर आम खाकर देखिये. तब आप समङोंगे कि गुजरात का जायका क्या है. राजू भाई, सवाल फलों के जायके या पेड़ों का नहीं है. मोदीजी सत्ता के जिस नये शहर को बसाना चाहते हैं, उसमें कौन बचेगा, कौन कटेगा, इसकी लड़ाई तो आरएसएस दरबार से लेकर 11-अशोक रोड और गांधीनगर तक होगी. खान साहेब, यह सवाल आपके दिमाग में क्यों आया? हमारे यहां तो हर किसी को जगह दी जाती है.

सवाल उम्र का तो होना ही चाहिए. गुरु या गाइड की भूमिका में भी स्वयंसेवकों को आना ही चाहिए. नहीं, राजू भाई, मेरा मतलब है कि कोई नया शहर बनता है तो उसमें भी बरगद या पीपल के पेड़ को काटा नहीं जाता है. आप तो आस्थावान हैं. बरगद-पीपल को कैसे काट सकते हैं? खान साहेब, अगर आप आडवाणी, जोशी, शांता कुमार या पार्टी छोड़ चुके जसंवत सिंह की बात कह रहे हैं, तो यह ठीक नहीं है. बरगद के पेड़ पर भी एक वक्त के बाद बच्चे खेलने नहीं जाते. और पीपल के तो हर पत्ते में देवता है. आधुनिक विकास के लहजे में समङों तो लुटियन्स की दिल्ली में क्रिसेन्ट रोड पर अंगरेजों ने भी सिर्फ पीपल के पेड़ ही लगाये, क्योंकि वह हमेशा ऑक्सीजन देता है. अंगरेज इसी सड़क पर सुबह सवेरे टहलते थे. तो क्या पार्टी में मोदी के अलावा आक्सीजन देनेवाले नेता बचे हैं, जिन्हें मोदी की कैबिनेट में जगह मिलेगी?

अरे हुजूर, अभी 16 तारीख तो आने दीजिए. इतनी जल्दबाजी न करें. गुजरात के लोग मोदीजी को जानते-समझते हैं. जो लायक होते हैं उन्हें वे चुन-चुन कर अपने साथ समेटते हैं. चाहे आप उनका विरोध ही क्यों न करें. आप इंतजार कीजिए. हो सकता है जसवंत सिंह की बीजेपी में वापसी हो जाये. तो क्या ब्लू प्रिट में यह भी दर्ज है कि किसे किस रूप में साथ लाना है और उससे क्या काम लेना है? खान साहेब, कम-से-कम अपने मंत्रिमंडल को लेकर तो मोदी का ब्लू प्रिंट तैयार होगा ही. आप मोदी को समझने से पहले यह समझ लीजिए कि वे संघ परिवार के प्रचारक रह चुके हैं. मौका मिले तो देखियेगा. कुर्ते की ऊपरी जेब में एक छोटी डायरी और पेंसिल जरूर रखते हैं.

जहां जो अच्छी जानकारी मिले, उसे नोट करते हैं. प्रचार के दौर में किसी ने कहा, रेलवे को कोई सुधार सकता है तो वह श्रीधरण हैं. तो मोदीजी ने इसे डायरी में लिख लिया. और खान साहेब यह भी जान लीजिए, पहले से तैयार ब्लू प्रिंट को आधार बना कर ही वे आगे कोई कार्यक्रम तय करते हैं. गुजरात में सीएम पद संभालने के बाद अक्तूबर, 2001 से लेकर पहले चुनाव में जीत यानी 2003 तक के दौर को देखिए. जो 2001 में साथ थे, वह 2003 के बाद मोदी के साथ नहीं थे, क्योंकि 2001 में सीएम बनते ही मोदी ने 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद का ब्लू प्रिंट बनाना शुरू कर दिया था. इसलिए मंत्रिमंडल से लेकर साथी-सहयोगी तक, सभी 2003 में बदल गये. गोधरा कांड कहिए या गुजरात दंगे, मोदीजी ने विधानसभा चुनाव वक्त पर ही कराये. जबकि 2003 में चुनाव नहीं होंगे, इसी के सबसे ज्यादा कयास लगाये जा रहे थे.

ध्यान दें तो बीजेपी में पहले दिन से मोदी का ब्लू प्रिंट देख कर ही हर कोई बेफ्रिक है. नारा भी लगा- ‘अबकी बार मोदी सरकार’. बीते 12 बरस में हर गुजराती मोदी के तौर-तरीके को जान चुका है. मोदी हर काम में समूची शक्ति चाहते हैं और उसे अंजाम तक पहुंचाते हैं. 2001 में समूची ताकत उनके पास नहीं थी. 2003 के चुनाव में जीत के बाद मोदी ने गुजरात को अपने हाथ में लिया और बदल दिया. अब देश बदले, यही सोच कर 50 हजार खर्च करके मैं गुजरात से आ गया.

लेकिन, अगर जनादेश ने पूरी ताकत मोदी को नहीं दी तब? जवाब में राजू भाई ने हंसते हुए कहा- खान साहेब, आपकी फ्लाइट का वक्त हो रहा है. आप गुजरात आइयेगा. खान साहेब भी जाते-जाते कह गये- अगर जनादेश ने मोदी को पूरी ताकत दे ही दी, तो फिर गुजरात आने की जरूरत क्या होगी राजू भाई! हम दोनों प्रसून के यहां दिल्ली में ही मिल लेंगे. राजू भाई बोले, तो तय रहा जनादेश के मुताबिक या तो गुजरात या फिर दिल्ली.

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