दूधो नहाओ पूतों (न) फलो

II सुरेश कांत II वरिष्ठ व्यंग्यकार दूध और पूत दोनों एक-साथ हासिल करने पर हम भारतीयों का पहले से बहुत जोर रहा है. दूध हासिल करने पर इसलिए कि पूत के काम आ सके और पूत हासिल करने पर इसलिए कि दूध का सही उपयोग हो सके. यह ठीक भी था, क्योंकि पुत्री को तो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 27, 2018 5:39 AM
II सुरेश कांत II
वरिष्ठ व्यंग्यकार
दूध और पूत दोनों एक-साथ हासिल करने पर हम भारतीयों का पहले से बहुत जोर रहा है. दूध हासिल करने पर इसलिए कि पूत के काम आ सके और पूत हासिल करने पर इसलिए कि दूध का सही उपयोग हो सके. यह ठीक भी था, क्योंकि पुत्री को तो दूध पिलाने योग्य समझा ही नहीं गया.
जरूर इसके पीछे वैज्ञानिक कारण रहे होंगे, जो दुनिया में केवल हमें ही पता थे. ऐसा भी नहीं कि दूध से उसका कोई नाता ही नहीं रहा. दूध दुहाया उसी से जाता था पशुओं का, इसी कारण वह ‘दुहिता’ कहलाई. यह वह गौरवशाली उपाधि थी, जो हमने पुत्री को दूध दुहने और उससे भी ज्यादा अपने द्वारा दुहे गये दूध को पीने का अधिकार छोड़ने जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य करने के कारण दी.
यह एक स्पष्ट और संतुलित कार्य-विभाजन था, जिसमें एक को दूध सिर्फ दुहना था और दूसरे को सिर्फ पीना. इतना शानदार कार्य-विभाजन किसी दूसरे देश में देखने को नहीं मिलता.
इतना महत्त्वपूर्ण कार्य करने के कारण स्वभावतः साधु-संतों और ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद की हकदार भी पुत्री ही रही, जिसे ‘दूधो नहाओ पूतों फलो’ का ही आशीर्वाद दिया गया. स्त्री होने के बावजूद उसके मन में पुत्री की नहीं, पुत्र पाने की लालसा भरी गयी. और पुत्र पाने के लिए क्या-क्या नहीं किया गया. यज्ञ भी किये गये, तो ‘पुत्रेष्टि’ टाइप के, जिसका अर्थ ही है ‘पुत्र की कामना से किया जानेवाला यज्ञ’.
यज्ञ-हवन जैसे अवैज्ञानिक तरीकों में विश्वास न करनेवाले वैज्ञानिक सोच के लोगों ने पुत्रियों को गर्भ में ही मारने के यज्ञ किये. जो अभावग्रस्त लोग ‘दूधों नहाने’ में असमर्थ रहे, वे भी ‘पूतों फलने’ के लिए हर संभव जतन करते देखे गये, चाहे फिर एक अदद पुत्र के इंतजार में पांच-पांच, छह-छह पुत्रियों की लाईन ही क्यों न लगानी पड़े.
पुत्रियों के बजाय पुत्रों की इतनी अदम्य कामना अकारण नहीं थी. इसे विधाता का अन्याय ही कहा जायेगा कि उसने स्वर्ग जहां एक ही बनाया, अगर उसी ने बनाया तो, वहीं नरक कई बना डाले, जिनमें से एक भयंकर नरक है ‘पुं’. ऊपर से पिता को उस नरक से तारने के लिए पुत्र का होना जरूरी कर दिया.
आजकल पिता को, और साथ में माता को भी, तारने की पुत्रों को इतनी जल्दी पड़ी रहती है कि वे जीते-जी ‘पुं’ से भी बड़ा नरक उनके लिए पैदा कर देते हैं और फिर उन्हें उसमें से तारने की कोशिश करने लगते हैं. उनकी कोशिशों से माता-पिता इतने तर जाते हैं कि अकसर दुनिया से ही तर जाते हैं.
आजकल वे पुत्र दूसरों की पुत्रियों को भी तारने में लगे हैं. इसके लिए वे रेप के अस्त्र का प्रयोग करते हैं. उनका यह रेपास्त्र ब्रह्मास्त्र से भी ज्यादा घातक है, क्योंकि जिस किसी पर वे यह अस्त्र चलाते हैं, ब्रह्मा भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते.
इस कारण आजकल महिलाएं ‘पूतों फलो’ का आशीर्वाद लेने-देने में हिचकने लगी हैं. कुछ समझदार महिलाएं पुत्री न होने की कामना भी करती देखी गयी हैं. ऐसा करके वे अनजाने ही पुत्रों के अत्याचारों का समर्थन कर देती हैं.

Next Article

Exit mobile version