भरोसे का संकट

लोकतांत्रिक व्यवस्था में शीर्षस्थ संस्थाओं के बीच उत्तरदायित्व का स्पष्ट विभाजन होता है. उनसे आपसी विवाद या टकराव के सकारात्मक समाधान की अपेक्षा भी होती है. लेकिन, बीते कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय के आंतरिक कामकाज तथा कार्यपालिका एवं विधायिका के साथ उसके संबंधों को लेकर चिंताजनक तस्वीर उभरी है. जनवरी में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 27, 2018 5:39 AM
लोकतांत्रिक व्यवस्था में शीर्षस्थ संस्थाओं के बीच उत्तरदायित्व का स्पष्ट विभाजन होता है. उनसे आपसी विवाद या टकराव के सकारात्मक समाधान की अपेक्षा भी होती है. लेकिन, बीते कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय के आंतरिक कामकाज तथा कार्यपालिका एवं विधायिका के साथ उसके संबंधों को लेकर चिंताजनक तस्वीर उभरी है.
जनवरी में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने सार्वजनिक रूप से कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और इससे लोकतंत्र को खतरा है. अभी दो वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश को संबोधित पत्र में सभी 24 जजों की पीठ बुलाकर न्यायालय के भविष्य से संबंधित संस्थागत मुद्दों पर विचार करने की मांग की है. ये न्यायाधीश प्रधान न्यायाधीश के रवैये पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं, वहीं उनकी एक प्रमुख चिंता न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार के दखल को लेकर है.
सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए कॉलेजियम द्वारा अनुमोदित इंदु मल्होत्रा के नाम को मंजूरी दे दी है, पर न्यायाधीश केएम जोसेफ के नाम को वापस कर दिया है. न्यायपालिका में हस्तक्षेप कहते हुए बार एसोसिएशन ने भी इस मामले में सरकार की आलोचना की है. इस पूरे प्रकरण में स्वयं प्रधान न्यायाधीश भी बहस का एक मुद्दा बने हुए हैं.
न्यायाधीशों की आलोचना के अलावा कुछ प्रमुख विपक्षी दल उन पर महाभियोग प्रस्ताव लाने के प्रयास में लगे हुए हैं. सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप तथा कानूनी विशेषज्ञों की विरोधाभासी टिप्पणियों ने समस्या को सुलझाने की जगह उसे और भी भ्रामक बना दिया है.
ऐसे माहौल में कुछ न्यायिक निर्णयों पर भी अंगुली उठ रही है. यह भी समझा जाना चाहिए कि प्रधान न्यायाधीश को हटाने से विभिन्न पीठों को मुकदमों के बंटवारे और जजों की नियुक्ति का मसला नहीं सुलझाया जा सकता है.
मुकदमे देने की प्रक्रिया को लेकर उठे सवालों का जवाब न्यायालय को खोजना होगा. पर, नियुक्तियों पर सरकार के रुख में बदलाव जरूरी है. कॉलेजियम की प्रक्रिया से संबंधित प्रस्ताव सरकार के पास बहुत समय से लंबित है. न्यायालयों में जजों की कमी को देखते हुए नामों को मंजूरी देने में देर भी उचित नहीं है.
विपक्ष को महाभियोग लाने में अपनी ऊर्जा खर्च करने की जगह इन मुद्दों पर सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. व्यवस्था के सुचारू रूप से चलने और अपेक्षित सुधारों को लागू करने के लिए संस्थाओं की संरचना और विश्वसनीयता का बचे रहना प्राथमिक शर्त है. पिछले कुछ समय से चुनाव आयोग, सशस्त्र सेना और रिजर्व बैंक अलग-अलग कारणों से राजनीतिक विवाद का विषय बन चुके हैं.
सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और यदि वहीं उथल-पुथल का वातावरण हो और सरकार या संसद का उस पर बेजा दबाव हो, तो फिर दुर्भाग्य और चिंता की इससे बड़ी बात कोई और नहीं हो सकती है. पूरे प्रकरण को देखते हुए संकट के बादल जल्दी छंटने की उम्मीद भी कम ही है.

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