ओ विद्रोही, महाकरुणामय!

II परिचय दास II पूर्व सचिव, हिंदी एवं मैथिली- भोजपुरी अकादमी, दिल्ली सरकार parichaydass@rediffmail.com बुद्ध का अर्थ है- जो संबुद्ध हो, जिसे संबोधि प्राप्त हो. हमारे समय में सम्यक दृष्टि का अभाव होता जा रहा है. संतुलन की कमी. यह कमी सब जगह परिलक्षित होती है- चित्त में, विचार में, जीवन में, देशीयता में पर्यावरण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 30, 2018 7:05 AM

II परिचय दास II

पूर्व सचिव, हिंदी एवं मैथिली- भोजपुरी अकादमी, दिल्ली सरकार

parichaydass@rediffmail.com

बुद्ध का अर्थ है- जो संबुद्ध हो, जिसे संबोधि प्राप्त हो. हमारे समय में सम्यक दृष्टि का अभाव होता जा रहा है. संतुलन की कमी. यह कमी सब जगह परिलक्षित होती है- चित्त में, विचार में, जीवन में, देशीयता में पर्यावरण में. इसलिए बुद्ध की दृष्टि चाहिए, वैसा ही मन चाहिए.

विश्व में बढ़ती हिंसा के बीच बुद्ध की आवश्यकता पहले से अधिक है. उन देशों के लिए तो और भी जरूरी, जहां बुद्ध किसी न किसी रूप में पहले से विद्यमान हैं. जैसे एशियाई देश- भारत, चीन, कंबोडिया, जापान, लाओस, नेपाल और भूटान.

बुद्ध एक ऐसा विचार-स्तंभ हैं, जो एशिया को ‘एशिया’ बनाते हैं. उनकी वजह से एशिया की गुरुता बढ़ती है. बुद्ध ही एशिया को जोड़ सकते हैं या विश्व को गूंथ सकते हैं अथवा गांधी. बुद्ध को केवल धार्मिक व्यक्ति के रूप में देखना एकांगी दृष्टि है. वे सांस्कृतिक आभा हैं, जिससे यह धरती आलोकित होती है. बुद्ध अतिवादिता से परे थे.

हमारा सामान्य भी ऐसा ही है. वहां अतिवादिता की जगह नहीं. इसलिए मध्य मार्ग जरूरी है. वीणा के तार इतने नहीं ताने जाने चाहिए कि टूट जायें या इतने ढीले न हों कि ध्वनि ही न आये. वास्तविक जीवन में भी बहुत कड़ाई हमें तोड़ देती है तथा बहुत ढिलाई कर्मच्युत कर देती है.

यशोधरा के दुख से हम दुखी होते हैं कि सिद्धार्थ को कोई रास्ता अलग किस्म का निकालना चाहिए था. शायद वह मार्ग अधिक सिद्ध अर्थ होता! परंतु जो हुआ, वह एक इतिहास है और इतिहास बदला नहीं जा सकता. हमारे स्वप्न, स्मृतियां एक अलग इतिहास के लिए संयोजित करते हैं, परंतु यथार्थ का पक्ष इतिहास को भाता है.

यथार्थ का कोई एक रूप नहीं होता और स्वप्नहीन यथार्थ का कोई अर्थ नहीं. यशोधरा की कसक प्रेम की कसक है, संबंध की कसक है, स्वप्न की कसक है. सिद्धार्थ मृत्यु से पार जाने को समझना चाहते हैं. क्या मृत्यु मनुष्य का अंत है? यशोधरा आकाश में आदमी के दुख-दर्द का अंतहीन महाकाव्य रच रही हैं, सिद्धार्थ भी वही कर रहे हैं- अलग तरीके से.

सिद्धार्थ की शीतल स्फटिक तरंग-उच्छ्वास सारनाथ में अगणित तरीके से प्रकट हो रही है. वृक्ष की छाया में रमनेवाला व्यक्ति स्वयं वृक्ष बन जाता है. पावों की सांकल को उतार फेंकना चाहते हैं सिद्धार्थ. व्यवस्था, वर्ण, लिंग, धर्म : सबकी सांकल. एक विद्रोही मन. सम्यक चित्त. ऐसा स्वप्नशील व्यक्तित्व, जिसमें नये दिनों के, नये समाज के, नये जीवन के रंग हैं. जहां अत्याचार नहीं, विभेद नहीं, विसंगति नहीं, शोषण नहीं.

सिद्धार्थ की संबोधि में आकाश का रंग सिंदूरी हो गया. उनके अस्फुट उच्चारण से चिड़ियां चहक उठीं. रेशमी हवा भोर ही में सिहर उठी. जैसे बुद्ध के रूप में संसार का पुनर्जन्म हुआ. महाकरुणामय! मदमत्त अभियान में निकले हुए संसार के जलहीन, प्रकाशहीन, करुणाहीन, निर्जीव समाजों के लिए एक संपूर्ण मनुष्य! सजीव समाधि में महानिद्रित! महाजागृत! पारंपरिक भारतीय समाज की श्रेणीबद्धता से मेघाच्छन्न क्षितिज से साफ होता आकाश. भारतीय समाजों की ऊंच-नीच यंत्रणाओं के अंधेरे से अलग अभिकेंद्रक बनाते सिद्धार्थ बुद्ध बने. ललित विस्तार सूत्र, बुद्ध चरित काव्य, लंकावतार सूत्र, अवदान कल्पलता, महावंश महानिर्वाण सूत्र, महावग्ग, जातक, कोपान भि-चि-चि, शाकजित सुरोकु, मललंगर वत्तु, गच्छका रोल्प आदि से बुद्ध के बारे में पता चलता है. प्रमुख रचनाकारों- अमर सिंह, राम चंद्र, विदेह, क्षेमेंद्र, अश्वघोष ने उन पर काव्य-प्रकाश डाला है.

यदि कोई मनुष्य आग जलाने की इच्छा से भीगी लकड़ी को पानी में डुबो रखे और फिर उसी लकड़ी को भीगी अरणी से रगड़े, तो वह उससे कभी आग नहीं निकाल सकता. उसी प्रकार जिसका चित्त रागादि से अभिभूत है, वह कदापि ज्ञानज्योति-लाभ नहीं पा सकता. यही उपमा बोधिसत्व के मन में पहली बार उदित हुई.

बाद में उन्होंने सोचा कि जो भीगी लकड़ी को जमीन पर रखकर अरणी से उसे रगड़ता है, वह भी जिस प्रकार अग्नि-उत्पादन में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार जिसका हृदय रागादि द्वारा अभिषिक्त है, उसे भी ज्ञानज्योति नहीं मिलती. यह दूसरी उपमा हुई. इसके बाद उनके मन में उत्पन्न हुआ कि जो सूखी लकड़ी को जमीन पर रखकर सूखी अरणी से रगड़ता है, वह उससे आग जला सकता है. जिसके चित्त से रागादि बिल्कुल चला गया है, वही सिर्फ ज्ञानाग्नि लाभ करने में समर्थ होता है. यह तीसरी उपमा हुई.

बुद्ध ने कहा था- संयोगोत्पन्न पदार्थ का क्षय अवश्यंभावी है. आकाश असीम है, ज्ञान अनंत; संसार अकिंचन, संज्ञा और असंज्ञा- दोनों ही अलीक हैं. इस प्रकार सोचते हुए ज्ञाता और ज्ञेय- दोनों का ध्वंस होने से बुद्ध ने परिनिर्वाण-लाभ किया.

एक बार सिद्धार्थ ने छंदक से कहा था- मैंने रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इत्यादि अनेक प्रकार की काम्य वस्तुओं का इस लोक तथा देवलोक में अनंत कल्प तक भोग किया है, किंतु मुझे किसी से भी तृप्ति नहीं मिली.

आज संपूर्ण विश्व के आकाश में अविश्वास के तैरते मेघ, सागर से उठ आती व्याकुल हवा का हाहाकार- अंधकार में चारों ओर इतिहास की फुसफुसाहट भरी बातें- अनुगूंजें. सिद्धार्थ यानी बुद्ध प्राणवंत और कविता की लहर. भारतीय समाजों में जाति व वर्गों की दीवारों के विद्रोही भेदक. बुद्ध यानी रंगों का समुज्ज्वल समारोह. प्राणियों के मीत. अहिंसा के गीत.

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