भारतीय जनतंत्र के लिए कई शुभ संकेत
।। पुष्पेश पंत ।। वरिष्ठ पत्रकार मतदाता यह भी जतला चुका है कि उसे अब लचर-लाचार नहीं, निर्णायक-दिलेर नेता चाहिए. इसके अभाव में विकास की बात करना व्यर्थ है और केवल लोकलुभावन योजनाओं या नारों के जरिये किसी वोट बैंक को भुनाया नहीं जा सकता. इस बार के आम चुनाव में शायद सबसे मजेदार बात […]
।। पुष्पेश पंत ।।
वरिष्ठ पत्रकार
मतदाता यह भी जतला चुका है कि उसे अब लचर-लाचार नहीं, निर्णायक-दिलेर नेता चाहिए. इसके अभाव में विकास की बात करना व्यर्थ है और केवल लोकलुभावन योजनाओं या नारों के जरिये किसी वोट बैंक को भुनाया नहीं जा सकता. इस बार के आम चुनाव में शायद सबसे मजेदार बात यह रही कि मतदाता और आम आदमी ने एक व्यक्ति को विचारधारा और मुद्दों से अधिक महत्वपूर्ण समझा-यहां तक कि कुछ लोग कहने लगे थे कि अब भारत का संसदीय जनतंत्र अमेरिका सरीखी राष्ट्रपति प्रणाली में बदलने लगा है!
बहुत पहले ही यह बात साफ हो गयी थी कि इस बार मुकाबला टक्कर का नहीं है. नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच की गैर बराबरी को पाटने के लिए कांग्रेस और यूपीए के दल-बल ने मोदी के राक्षसीकरण एवं भाजपा को बदनाम करने की नीति अपनायी. जोर-शोर से प्रचार किया गया कि इस बार ‘जनतंत्र और फासीवादी तानाशाही’ के बीच महाभारत लड़ा जा रहा है, ‘धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता’ के बीच भिड़ंत हो रही है. परंतु, इस हमले का मुकाबला मोदी ने बड़ी चतुराई के साथ किया- अपने भाषणों में विकास को ही केंद्रीय मुद्दा बना कर.
उन्होंने श्रोताओं को वचन दिया कि यदि सत्ता की बागडोर उनके हाथ सौंपी गयी, तो वे पूरे भारत को (बीमारू राज्यों समेत) ‘गुजरात’ में बदल देंगे. जिस तरह अपने राज में उन्होंने गुजरात का नक्शा बदला है, वैसे ही वह बाकी सूबों में भी शांति और सुव्यवस्था को वापस लौटा लाएंगे, आर्थिक प्रगति की दर तेज करेंगे. संक्षेप में कहें तो मोदी ने देश के मतदाताओं को भरोसा दिलाया सुशासन का, एक भ्रष्टाचार मुक्त जिम्मेवार तथा जवाबदेह प्रशासन का.
मोदी के आलोचकों ने आरोप लगाया कि गुजरात के कायाकल्प के उनके दावे झूठे हैं. वे मतदाताओं को एक आत्मघातक मरीचिका में भटका रहे हैं, गुजरात शुरू से ही खुशहाल और प्रगतिशील राज्य रहा है. मोदी अपने पुरखों की बोई फसल काट कर सारा श्रेय अपने खाते में डाल रहे हैं. मोदी पर यह लांछन भी लगाया गया कि वे बड़े पूंजीपतियों के मोहरे हैं- उनकी नीतियों ने अमीरों को ही फायदा पहुंचाया है. इशारा यह था कि अगर मोदी सरकार बनी, तो गरीबों के पेट पर जोरदार लात पड़ेगी. यूपीए ने वंचितों और उत्पीड़ितों के पक्ष में जो कल्याणकारी परियोजनाएं लागू कीं, वे बुरी तरह बाधित हो जाएंगी.
इतना ही नहीं, गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों के लिए भी मोदी लगातार कटघरे में खड़े किये जाते रहे. दंगों पर काबू न पाने के लिए मोदी को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेवार ठहराने की कोशिश की जाती रही. लेकिन विडंबना यह रही कि जैसे-जैसे इन आरोपों को धारदार बनाने की कोशिश हुई, लोगों को न केवल 1984 के सिख विरोधी वंशनाशक नरसंहार की याद ताजा हो आयी, वरन हाल के मुजफ्फरनगर दंगों में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राज्यों के दोहरे मानदंड और पाखंड का भी परदाफाश होता गया.
इस सबके समानांतर एक दूसरे घटनाक्रम ने भी मतदाताओं को बांधे रखा. यूपीए सरकार के दस साल के कार्यकाल के बहुत सारे दैत्याकार घोटालों का भंडाफोड़ हुआ. इससे मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत बेदाग छवि भी धुंधलाती चली गयी. दागी नेताओं और सरकार से जुड़े पूंजीपतियों को बचाने की कसरत में यूपीए सरकार पक्षाघात ग्रस्त बन गयी. इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा. भारत की विकास दर निरंतर नीचे गिरती गयी, महंगाई कमरतोड़ रूप धारण करती रही. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी विफलता उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र में ही रही. उनके प्रशंसक-समर्थक यह सुझाने को मजबूर हुए कि बेचारे प्रधानमंत्री को आलाकमान तर्कसंगत तरीके से फैसले नहीं लेने दे रही!
राहुल गांधी के ‘उदय’ ने मनमोहन सिंह के कद को शर्मनाक तरीके से बौना बना दिया. इसके पहले भी कहा जाता था कि मनमोहन सिंह तो इस सरकार का चेहरा भर हैं, असली ताकत तो परदे के पीछे कोई और है. यह परदा झीना सा था, पीछे सोनिया गांधी साफ दिखाई दे रही थीं, जिनके आदेश-निर्देश की अवहेलना करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता था.
इतना ही नहीं, अन्ना आंदोलन हो या ‘आप’ की चुनौती, कांग्रेस के सत्ता मदांध कपिल सिब्बल और चिदंबरम सरीखे बड़बोले मंत्रियों के अलावा किसी का दुस्साहस यूपीए सरकार की ‘उपलब्धियां’ गिनाने का नहीं होता था. आज कांग्रेसी यह बहाना बना रहे हैं कि अपनी उपलब्धियां जनता तक पहुंचाने में उनसे कहीं चूक हुई- भाजपा के खर्चीले चुनाव अभियान ने अपने विज्ञापनों की आंधी से दर्शकों-पाठकों को एक हद तक अंधा बना दिया, लेकिन कोई भी तटस्थ व्यक्ति यह सवाल उठाने को मजबूर है कि क्या आम आदमी इतना नादान है कि अपना भला-बुरा न समझता हो? जहां तक संसाधनों का प्रश्न है, केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, इनके पास अपने कामकाज की जानकारी जनता तक पहुंचाने के लिए धनराशि का कभी कोई अभाव नहीं दिखा.
कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती अपना सर्वस्व एक नशे में गाफिल जुआड़ी की तरह एक ही दावं पर लगाने की थी. यह दावं था राहुल गांधी को युवा हृदय सम्राट और भारत के भविष्य के रूप में पेश करना. राहुल आरंभ से ही एक उदासीन अधेड़ नजर आते रहे हैं, जिनकी कोई खास दिलचस्पी अपनी पारिवारिक विरासत को स्वीकारने में नहीं रही. दस साल में कई बार उन्होंने सरकार में कोई भी जिम्मेवारी लेने से इनकार किया, हालांकि बाजू चढ़ा कर अपनी ताकत का इजहार करने में उन्हें कोई हिचक कभी नहीं हुई.
जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि यूपीए सरकार ने भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों पर अंकुश लगाने के लिए जो अध्यादेश जारी किया था वह ‘फाड़ कर कूड़े की टोकरी में डालने लायक बकवास है’, तो राष्ट्र स्तब्ध रह गया. इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने शर्मसार होने के बाद भी अपने पद पर बने रहने का जो फैसला किया, उसने उनके समर्थकों को बुरी तरह निराश किया और जनतांत्रिक होने का दावा करनेवाली कांग्रेस से उसके बचे-खुचे समर्थकों का भी मोहभंग हो गया. इस तरह राहुल के जिस ‘करिश्मे’ का आसरा डूबती कांग्रेस के लिए आखिरी तिनके जैसा था, वह किसी काम का नहीं निकला. बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सीली फुलझड़ी जैसे प्रदर्शन के बाद भी न जाने किस आधार पर उनके अंधभक्त अपनी आस्था को अक्षत रखे थे!
बहरहाल इस चुनाव ने कई भरम तोड़े हैं. धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता वाली नूरा-कुश्ती में अधिकतर मतदाताओं, खासकर नौजवानों की कोई रुचि नहीं है. खुद को जनतांत्रिक कहनेवाली कांग्रेस का वंशवादी तुनुकमिजाज तानाशाही चेहरा भी अब किसी मुखौटे के पीछे छुपाया नहीं जा सकता. मतदाता यह भी जतला चुका है कि उसे अब लचर-लाचार नहीं, निर्णायक-दिलेर नेता चाहिए. इसके अभाव में विकास की बात करना व्यर्थ है और केवल लोकलुभावन योजनाओं, कार्यक्रमों या नारों के जरिये किसी वोट बैंक को भुनाया नहीं जा सकता. इन्हें भारतीय जनतंत्र के लिए शुभ संकेत समझा जाना चाहिए.