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न्यायपालिका और कार्यपालिका
II रविभूषण II वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com पिछले सात-आठ महीने से न्यायपालिका पर उसके भीतर और बाहर से जिस तरह के सवाल किये जा रहे हैं, वे हम सबके लिए विशेष चिंताजनक हैं. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने 12 जनवरी, 2018 को अप्रत्याशित ढंग से प्रेस-कॉन्फ्रेंस कर अपनी जो चिंताएं प्रकट की थीं, वे […]
II रविभूषण II
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
पिछले सात-आठ महीने से न्यायपालिका पर उसके भीतर और बाहर से जिस तरह के सवाल किये जा रहे हैं, वे हम सबके लिए विशेष चिंताजनक हैं.
सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने 12 जनवरी, 2018 को अप्रत्याशित ढंग से प्रेस-कॉन्फ्रेंस कर अपनी जो चिंताएं प्रकट की थीं, वे और अधिक गहरा रही हैं. सुप्रीम कोर्ट पहली बार सवालों के घेरे में है. 12 अप्रैल, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के जज कूरियन जोसेफ ने इस संस्था के जीवन और अस्तित्व पर जोखिम की बात कही है अौर इसी दिन कपिल सिब्बल ने न्यायपालिका के अधोबिंदु तक पहुंच जाने की चिंता प्रकट की है. पहली बार न्यायपािलका की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर चिंताएं प्रकट की जा रही हैं.
जज लोकतंत्र पर मंडराते खतरों को लेकर चिंतित हैं. कार्यपालिका के निरंतर हस्तक्षेप को लेकर चिंताएं वाजिब हैं. न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर स्वतंत्र भारत में पहली बार प्रहार इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1973 में हुआ.
सरकार के विरुद्ध निर्णय देने के कारण तीन वरिष्ठतम जजों का प्रतिस्थापन किया गया. सुप्रीम कोर्ट के 14वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में अजितनाथ रे की नियुक्ति उनसे तीन वरिष्ठ जजों- जयशंकर मणिलाल शेलट, एएन ग्राेवर और के एस हेगड़े को नजरअंदाज कर की गयी थी. न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर यह पहला बड़ा हमला था, जिसे ‘भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दिन’ कहा गया.
इसके बाद ही आपातकाल लगा. न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रहार आपातकाल की पूर्व सूचना है. वह दोनों ही रूपों में घोषित और अघोषित हो सकता है. जस्टिस हंसराज खन्ना सुप्रीम कोर्ट में 1971 से 177 तक जज थे. सरकार के पक्ष में निर्णय न देने के कारण उन्हें न्यायाधीश न बनाकर मिर्जा हमीदुल्ला बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया. जस्टिस खन्ना ने कनिष्ठ जज को मुख्य न्यायाधीश बनाये जाने के विरोध में त्यागपत्र दे दिया.
एजी नूरानी ने अपने एक लेख ‘क्राइसिस इन जुडिशियरी’ (फ्रंटलाइन, मई 11, 2018) में, बिशन नारायण टंडन की पुस्तक ‘पीएमओ डायरी II – दि इमरजेंसी’ की चर्चा की है, जो 16 अगस्त, 1975 से 24 जुलाई, 1976 की है. इस डायरी में उल्लेख है कि इंदिरा गांधी के मुकदमें में इंदिरा के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के जजों काे ‘एप्रोच’ किया जाता था. हक्सर को प्राय: प्रत्येक जज के पास भेजा जाता था और तत्कालीन कानून मंत्री गोखले भी इसमें शामिल थे.
इंदिरा गांधी के कार्यकाल में स्वतंत्र न्यायपालिका के आधार और उसकी संरचना को कमजोर किया गया.आपातकाल में तो बिना किसी मुकदमे के हजारों लोग जेल में पड़े रहे. साल 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी के बाद भी स्थिति पूर्णत: नहीं बदली. केवल एक वर्ष 1983 में ही इंदिरा गांधी ने पांच बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा खारिज की. न्यायपालिका में कार्यपालिका का हस्तक्षेप इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी के समय ही अधिक दिखायी देता है.
न्यायपालिका में कार्यपालिका की हस्तक्षेपकारी भूमिका लोकतंत्र और संविधान के विरुद्ध है. न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव घातक है. पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर इतने गंभीर आरोप लगे हैं.
उनकी कार्यशैली पर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं. जहां तक ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ या ‘विवेकाधीन अधिकार’ का प्रश्न है, नूरानी ने उपर्युक्त लेख में आयरिश राजनेता, लेखक, सिद्धांतवेत्ता, दार्शनिक और लंदन में 1766 से 1794 तक रहे संसद सदस्य एडमंड बर्क (12.1.1729-9.7.1797) के उस भाषण की विस्तारपूर्वक चर्चा की है, जो उन्होंने भारत के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स पर लगे महाभियोग में दिया था. बर्क ने कहा था कि मनमाना, इच्छाधीन या विवेकाधीन अधिकार कोई व्यक्ति धारण नहीं कर सकता और न कोई इसे दे सकता है. उसने इसे देने और प्राप्त करनेवाले को अपराधीतुल्य माना और कानून एवं विवेकाधीन अधिकारों को शाश्वत शत्रुता के रूप में देखा.
न्यायपालिका ‘संविधान की अंतिम संरक्षक’ है. कार्यपालिका अगर अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन न करे, तो न्यायपालिका को अपना कर्तव्य पूरा करना होगा. इन दाेनों के बीच तनावपूर्ण संबंध रहे हैं.
पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने बार-बार कार्यपालिका से, सरकार से देश के उच्च न्यायालयों में चार सौ से अधिक खाली न्यायाधीशों के पद को भरने की बात कही थी. अभी न्यायपालिका पर कार्यपालिका का हस्तक्षेप है और उसके भीतर से मुख्य न्यायाधीश की
कार्यशैली पर लगातार सवाल किये जा रहे हैं, जिनमें जनहित याचिका पर की गयी टिप्पणी, केसों का बंटवार, लोया केस आदि प्रमुख है.
दूसरी आेर सरकार उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ की सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में प्रोन्नति नहीं चाहती. मुख्य न्यायाधीश ने वह याचिका भी खारिज की जिसमें केवल इंदु मल्होत्रा को जज न बनाने की बात कही गयी थी. सरकार अपनी पसंद के जजों की नियुक्ति चाहती है.
2014 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में गोपाल सुब्रमण्यम के नाम की संस्तुति की थी, जिसे सरकार ने नहीं माना. कॉलेजियम द्वारा भेजे गये नाम केएम जोसेफ को सरकार द्वारा स्वीकृत न करने की अालोचना सोली सोराबजी और पूर्व मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने भी की है.
न्यायाधीश पर प्रहार लोकतंत्र और संविधान पर भी प्रहार है. इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना भी की गयी है. पहली बार न्यायपालिका की अधिक आलोचना हो रही है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय लोकतंत्र और संविधान की रक्षा से जुड़ी है.
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