II राजीव रंजन झा II
संपादक, निवेश मंथन
Rajeev@sharemanthan.com
सोमवार को कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय भावों में आयी उछाल और उसके साथ ही डॉलर की मजबूती ने भारतीय रुपये पर दोहरा वार किया और रुपया डॉलर की तुलना में 67 के स्तर के नीचे चला गया, यानी एक डॉलर की कीमत 67 रुपये से ज्यादा हो गयी. यह करीब डेढ़ साल में रुपये का सबसे कमजोर स्तर है. लोगों ने आशंका जतायी कि आनेवाले दिनों में डॉलर का भाव 70 रुपये के भी ऊपर चला जायेगा. क्या वाकई ऐसा हो सकता है? अगर ऐसा हुआ, तो देश की अर्थव्यवस्था पर उसका असर क्या होगा?
रुपये की कमजोरी के पीछे एक पहलू यह भी बताया जा रहा है कि अमेरिका में बॉन्डों पर कमाई (यील्ड) बढ़ने के चलते विदेशी निवेशकों के लिए खुद अमेरिकी बाजार ज्यादा आकर्षक हो गया है. वहीं भारतीय शेयर बाजार ऊंचे स्तर पर होने के कारण यहां शेयरों का मूल्यांकन उन्हें महंगा लगने लगा है.
इसके चलते विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) भारतीय शेयर बाजार में लगातार बिकवाली करके वह पैसा वापस ले जा रहे हैं. जब वे पैसा वापस ले जाते हैं, तो भारत से डॉलर बाहर जाते हैं, जिसके चलते रुपया कमजोर होता है.
इक्विटी श्रेणी में एफआईआई की बिकवाली को ऊपरी स्तरों पर थोड़ी-थोड़ी मुनाफावसूली के रूप में ही देखा जा सकता है. अप्रैल में भारतीय इक्विटी बाजार में उनकी शुद्ध बिकवाली करीब एक अरब डॉलर (6,468 करोड़ रुपये) की रही है. पर इससे पहले जब मार्च में भारतीय बाजार कुछ नीचे आ गया था, तो उस दौरान एफआईआई ने करीब दो अरब डॉलर (13,372 करोड़ रुपये) की शुद्ध खरीदारी भी की थी. मगर दूसरी ओर ऋण (डेब्ट) बाजार में एफआईआई पिछले तीन महीनों से लगातार पैसे बाहर निकाल रहे हैं. यह अमेरिकी बाजार में यील्ड बढ़ने का असर ही है.
हालांकि रुपये पर असर डालनेवाला मुख्य कारण अभी कच्चे तेल का भाव और डॉलर की अन्य देशों की मुद्राओं के सापेक्ष मजबूती ही है. विश्व बाजार की इस उठापटक में भारत सरकार या आरबीआई की ओर से कुछ खास किया भी नहीं जा सकता है.
इसलिए यदि कच्चे तेल की कीमत का बढ़ना जारी रहा, तो रुपये में आगे और भी कमजोरी आ सकती है. कुछ जानकार कह रहे हैं कि रुपया आनेवाले महीनों में 70 के आसपास तक गिरने के बाद ही स्थिर होगा. हालांकि, दूसरा नजरिया यह है कि रुपया 65-68 डॉलर के दायरे में ही घूमता रहेगा. अगर यह किसी उथल-पुथल में 70 की ओर गया भी, तो ज्यादा देर तक वहां नहीं रहेगा.
इससे पहले 24 अगस्त, 2015 को जब चीन के मुद्रा संकट से पैदा वैश्विक झंझावातों के असर से न केवल रुपये में काफी कमजोरी आयी थी, बल्कि शेयर बाजार में सेंसेक्स भी एक ही दिन में 1700 अंक से ज्यादा गिर गया था, तब आरबीआई गवर्नर के रूप में रघुराम राजन ने बाजार को भरोसा दिलाने के लिए कहा था कि भारत के पास 380 अरब डॉलर का मजबूत विदेशी मुद्रा भंडार है.
अगर उसकी तुलना में आज की स्थिति देखें, तो भारत का विदेशी मुद्रा भंडार और भी बढ़कर 425 अरब डॉलर से ऊपर का है, यानी आरबीआई इस उथल-पुथल को संभालने के लिए पहले से ज्यादा सक्षम है.
रुपये के विनिमय दर पर अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का असर तो होता ही है, पर साथ ही सरकार और आरबीआई की सोच और रणनीति का भी बड़ा असर होता है.
मनमोहन सिंह की सरकार के समय डॉलर-रुपये की विनिमय दर को फरवरी 2013 में करीब 53 रुपये के स्तर से अगस्त 2013 में करीब 69 रुपये तक जाने दिया गया. यानी केवल छह-सात महीनों में रुपये का लगभग 30 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया गया था, अवमूल्यन की कोई औपचारिक घोषणा किये बिना.
दरअसल, तब साल 2012-13 का चालू खाते का घाटा (करेंट एकाउंट डेफिसिट) जीडीपी के 4.8 प्रतिशत के रिकॉर्ड ऊंचे स्तर पर चला गया था. एक नजरिया यह है कि करेंट एकाउंट डेफिसिट को संतुलित करने में रुपये की कमजोरी से सहायता मिलेगी. आशय है कि रुपये की कमजोरी से निर्यात बढ़ेगा, जिससे व्यापार घाटा कम होगा. पर रघुराम राजन ने जून 2013 में, जब वे आरबीआई गवर्नर नहीं बने थे, एक टीवी साक्षात्कार में कहा था कि ‘छोटी-मध्यम अवधि में रुपये के अवमूल्यन से इसमें मदद नहीं मिलती है. क्योंकि भारत के निर्यात में होनेवाली वृद्धि काफी हद तक इस पर निर्भर करती है कि साझेदार (आयातक) देश की विकास दर कैसी है.
अगर अमेरिका में, बाकी एशियाई व्यापारिक साझेदार देशों में वृद्धि होती है, तो स्वाभाविक रूप से हमारे निर्यात में वृद्धि होती है. इसके लिए हमें रुपये में अवमूल्यन करने की जरूरत नहीं है.’ रुपये के अवमूल्यन से नुकसानों पर राजन ने जून 2013 में कहा था- ‘इसका असर अधिक महंगाई दर के रूप में सामने आता है, आयात की लागत बढ़ जाती है. हमें इसकी जरूरत नहीं है.’
बहरहाल, इस समय देश का चालू खाता घाटा भी काफी नीचे आ चुका है. यह 2015-16 में 1.1 प्रतिशत और 2016-17 में मात्र 0.7 प्रतिशत के स्तर पर रहा. हालांकि, अनुमानों के मुताबिक 2017-18 में यह 1.5-1.7 प्रतिशत रह सकता है.
साथ ही भाजपा सरकार के रुझान को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वह रुपये को ज्यादा कमजोर होने देने के पक्ष में रहेगी. इसलिए मोटे तौर पर यह संभावना ज्यादा लगती है कि डॉलर-रुपया विनिमय दर 65-68 के दायरे में बनी रहे.