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‘शून्य भूख’ कार्यक्रम की जरूरत
II वरुण गांधी II सांसद, भाजपा fvg001@gmail.com भारत के दूर-दराज इलाकों से आनेवाली भूख से मौतों की खबरें अपने-आप में दुखद हैं. और बेहद परेशान करनेवाली हैं. इस साल के शुरू में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में दो दिन से भूखी 13 साल की एक लड़की ने खुद को फांसी लगा ली- उसके पिता की […]
II वरुण गांधी II
सांसद, भाजपा
fvg001@gmail.com
भारत के दूर-दराज इलाकों से आनेवाली भूख से मौतों की खबरें अपने-आप में दुखद हैं. और बेहद परेशान करनेवाली हैं. इस साल के शुरू में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में दो दिन से भूखी 13 साल की एक लड़की ने खुद को फांसी लगा ली- उसके पिता की मौत हो चुकी थी और मां को दिहाड़ी मजदूरी का कोई काम नहीं मिला था. उसी हफ्ते केरल में एक आदिवासी युवा को परचून की दुकान से एक किलो चावल चोरी करने के लिए पीटकर मार डाला- वह पहले भीख मांग रहा था और फिर चोरी का सहारा लिया; पकड़ा गया, तो उसे इतना मारा कि उसकी मौत हो गयी.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स, 2017 (वैश्विक भुखमरी सूचकांक) के मुताबिक भारत की तकरीबन 14.5 फीसदी आबादी अल्प-पोषित है, हमारे 21 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं.
जबकि यहां पांच साल से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चे विकास-अवरुद्धता से ग्रस्त हैं, जो हमारे यहां बच्चों की मृत्युदर (पांच साल से कम आयु के बच्चों में करीब पांच प्रतिशत) और बच्चों की लंबाई (भारत में पैदा होनेवाले बच्चे अफ्रीका में उप-सहारा क्षेत्र के बच्चों से भी औसतन छोटे होते हैं) में भी परिलक्षित होती है.
पच्चीस करोड़ भारतीय अब भी खाद्य सुरक्षा से वंचित हैं, जिन्हें रोजाना 2,100 कैलोरी से कम मिल रही है. इसमें झारखंड और पश्चिम बंगाल का हाल सबसे बुरा है. जैसा कि योजना आयोग ने एक बार कहा था- ‘भारत अगर अकाल की हालत में ना हो तो भी, निश्चित रूप से लगातार भुखमरी की हालत जरूर है.’
ऐसा नहीं है कि नीति-निर्माता इससे अनजान हैं. खाद्य सुरक्षा कानून के साथ ही पीयूसीएल बनाम केंद्र सरकार (2001) के ऐतिहासिक मुकदमे के फैसले के बाद बीते एक दशक में अदालत द्वारा करीब 60 आदेश पारित किये जा चुके हैं- लेकिन यह न्यायिक सक्रियता जमीनी तौर पर कोई बदलाव ला पाने में नाकाम ही रही.
ऐसा तीन व्यवस्थागत कारणों से हुआ- व्यापक कानूनों के बाद भी सुधारों को लागू करने की उन संस्थाओं में इच्छाशक्ति की कमी, जो देशभर में बेहतर फूड डिलिवरी सुनिश्चित कर सकती हैं; हमारी खाद्य नीति अनाज की व्यापक उपलब्धता सुनिश्चित करने पर केंद्रित है, जबकि फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के गोदामों में हमारा कृषि-सरप्लस सड़-गल रहा है. और अंतिम, निचले सामाजिक स्तर ने महिलाओं को कुपोषित रखा- इसके साथ खुले में शौच की आदत ने उन पर और बच्चों पर घातक असर डाला.
ऐसा नहीं है कि यह जटिल मुद्दा हल नहीं किया जा सकता- कई देशों और राज्यों ने इसका समाधान कर आदर्श पेश किया है. भारत की तरह दक्षिण अफ्रीका ने व्यापक रूप से राइट टू फूड (भोजन का अधिकार) दिया, जबकि ब्राजील ने ‘फोम जीरो’ कार्यक्रम का इस्तेमाल करते हुए संस्थागत प्रतिबद्धता के साथ देश के सभी लोगों को पौष्टिक खाना उपलब्ध कराया. आगे चलकर इसमें 31 खाद्य कल्याण कार्यक्रम जुड़ गये. ब्राजील ने लोक अभियोजक को स्थानीय स्तर पर भूख के मुद्दे को मानवाधिकार उल्लंघन के तौर पर उठाने की भी इजाजत दी.
इधर, युगांडा ने कुपोषण से निपटने को खाद्य सुरक्षा के लिए घर के मुखिया पर जुर्माने के साथ कानूनी जिम्मेदारी डाली. इसके साथ ही शहरों में केंद्र बनाये, जहां सब्सिडी वाला खाना मिलता है और सप्लीमेंटरी न्यूट्रीशन स्कीम शुरू की गयी, जिससे भूख की समस्या को हल करने में मदद मिली.
भारत के राज्यों ने भी राह दिखायी है- कई राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में नये बदलाव किये गये. बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों ने अनाज के लिए पात्रता की शर्तों में बदलाव किया, जबकि हिमाचल प्रदेश ने पीडीएस स्कीम को सबके लिए उपलब्ध बना दिया.
छत्तीसगढ़ में बेहतर सेवा की निगरानी (अंदलीब रहमान, आईजीआईडीआर, मई 2014) पर ध्यान देने के साथ-साथ उचित दाम की दुकानों के मालिकों को अच्छा कमीशन देने और कीमतों में कमी के चलते पीडीएस से उठान बढ़ा और घोटालेबाजों के लिए फायदा नहीं रहा.
भारत में बारिश और कीड़े-मकोड़ों के खतरे के बीच प्लास्टिक शीट की नाममात्र की सुरक्षा में करीब 30 लाख टन अनाज खुले में स्टोर किया जाता है- इतना अनाज यूरोप के मध्यम आकार के किसी देश का पेट भर सकता है. चुनौती यह है कि गरीबों के लिए ज्यादा अनाज उपलब्ध हो और साथ ही बर्बादी व भ्रष्टाचार रुके. हालांकि, आईआईटी दिल्ली की रीतिका खेड़ा की 2011 की रिपोर्ट बताती है कि हाल के समय तक पीडीएस से लाभान्वित होनेवाले परिवार नियमित रूप से 44 फीसदी गेहूं और चावल से वंचित रखे गये. इधर, एफसीआई के अनाज की बर्बादी खराब वैगन, अपर्याप्त सुरक्षा, कई बार में होनेवाले उठान में नुकसान जैसे विभिन्न कारणों से 90 फीसदी तक हो सकती है.
इन हालात में मौके के मुताबिक अनाज का निपटान किये जाने की नीति बनाने के साथ ही एफसीआई का स्टॉक रखने का काम प्राइवेट सेक्टर को आउटसोर्स कर देना चाहिए. एफसीआई को उसके काम के हिसाब से अलग-अलग हिस्सों में बांटने की संभावना का पता लगाना चाहिए. खरीद की प्रक्रिया का विकेंद्रीकरण किये जाने और स्थानीय भंडारण पर भी विचार किया जाना चाहिए.
बढ़ते फूड इनफ्लेशन को देखते हुए इसकी खरीद नीति को फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति से तालमेल बिढ़ाते हुए बदलते रहना चाहिए. इसमें दलहन, तिलहन और पूरे साल के लिए प्याज को भी शामिल किया जाना चाहिए. इसका फोकस असम, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे खाद्य असुरक्षा का सामना करनेवाले राज्यों पर होना चाहिए.
एक ‘शून्य भूख’ कार्यक्रम की जरूरत है, जिसका मकसद दो साल से कम उम्र के बच्चों में विकास-अवरुद्धता की समस्या को खत्म करना हो. इसके लिए बहुआयामी रणनीति बनानी होगी, जिसमें कृषि उत्पादकता बढ़ाने, मातृत्व और चाइल्ड केयर उपायों से महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के साथ पोषण को लेकर शिक्षित करने और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम चलाने होंगे.
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