विषमता कम हो
अफ्रएशिया बैंक की ताजा रिपोर्ट में भारत को संपत्ति के लिहाज से दुनिया के शीर्ष के दस देशों में शुमार किया गया है. वैश्विक संपत्ति पलायन समीक्षा शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका 62,584 अरब डॉलर के साथ सबसे धनी देश है और चीन (24,803 अरब डॉलर) और जापान (19,522 अरब डॉलर) दूसरे […]
अफ्रएशिया बैंक की ताजा रिपोर्ट में भारत को संपत्ति के लिहाज से दुनिया के शीर्ष के दस देशों में शुमार किया गया है. वैश्विक संपत्ति पलायन समीक्षा शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका 62,584 अरब डॉलर के साथ सबसे धनी देश है और चीन (24,803 अरब डॉलर) और जापान (19,522 अरब डॉलर) दूसरे तथा तीसरे स्थान पर हैं.
आॅस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस तथा इटली जैसे विकसित देशों को पीछे छोड़ते हुए भारत इस सूची में छठे स्थान (8,230 अरब डॉलर) पर है.चूंकि इसमें हर देश में लोगों के हाथ में मौजूद राशि या उनके मालिकाने की संपदा के मोल का आकलन किया गया है और सरकारी राशि की गणना नहीं की गयी है, इस लिहाज से इससे विभिन्न देशों के नागरिकों की क्रयशक्ति की झलक मिलती है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था भारत से नौ गुना और चीनी अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना ज्यादा बड़ी है.
लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उपभोग और निवेश के मामले में भारतीय समाज का एक तबका अब विश्व के शीर्ष के देशों की बराबरी में आ चुका है. यह भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत का सूचक है. अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की वजह से उद्यमियों की संख्या बढ़ी है तथा भारतीय सूचना-प्रौद्योगिकी उद्योग ने विश्व स्तर पर अपनी धाक जमायी है.
साथ ही, जमीन-जायदाद, स्वास्थ्य तथा मीडिया के क्षेत्र में कारोबार की संभावनाएं लगातार बलवती होती गयी हैं. बहरहाल, समृद्ध होते भारत की एक सच्चाई यह भी है कि संपत्ति बड़ी मात्रा में कुछ ही लोगों के हाथ में सिमटती जा रही है. कुछ समय पहले आयी ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में कुल धन-संपदा का 58 फीसदी हिस्सा महज एक फीसदी लोगों के हाथ में है.
आर्थिक विषमता इतनी तेजी से बढ़ रही है कि पिछले साल उपार्जित कुल संपदा का 73 फीसदी भाग देश की सबसे समृद्ध एक फीसदी लोगों के पास सिमटकर रह गया. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के शोध के तथ्य इंगित करते हैं कि भारत में आयकर की शुरुआत (1922) के बाद से 2014 के वक्त तक राष्ट्रीय आय में देश की शीर्ष एक फीसदी आबादी की आमदनी का स्तर अभी से ज्यादा पहले कभी नहीं रहा.
साल 1930 में इस तबके के हाथों में कुल राष्ट्रीय आय का 21 फीसदी हिस्सा ही था, जो 1980 के दशक में घटकर छह फीसदी पर पहुंचा. लेकिन, 2014 तक फिर से बढ़कर यह 22 फीसदी तक जा पहुंचा, जबकि 1951-1980 के बीच कम आमदनीवाली निचली 50 फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का महज 28 फीसदी हिस्सा ही आया.
दुनिया के सबसे धनी मुल्कों में शुमार होना निश्चित ही संतोष की बात है, लेकिन आय का समान वितरण सुनिश्चित करना भी बहुत जरूरी है, ताकि देश की अधिकतर आबादी के लिए गरिमापूर्वक जीवन जी सकने की स्थितियां तैयार हों. अर्थव्यवस्था के स्थायित्व की भी यह एक अनिवार्य शर्त है.