चुनौतीपूर्ण अर्थव्यवस्था के संकेत

II अजीत रानाडे II सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org अभी जबकि हम वित्तीय वर्ष 2018-19 की शुरुआत से ही गुजर रहे हैं, विश्व के वृहत आर्थिक संकेत प्रतिकूलता की ओर अग्रसर हैं. इस प्रतिकूलता के चार प्रमुख कारक हैं. पहला, डॉलर के मुकाबले रुपया नीचे जा रहा है, जिसका कुछ हिस्सा तो इसके अतिमूल्यन में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 23, 2018 6:33 AM
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II अजीत रानाडे II
सीनियर फेलो,
तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
अभी जबकि हम वित्तीय वर्ष 2018-19 की शुरुआत से ही गुजर रहे हैं, विश्व के वृहत आर्थिक संकेत प्रतिकूलता की ओर अग्रसर हैं. इस प्रतिकूलता के चार प्रमुख कारक हैं. पहला, डॉलर के मुकाबले रुपया नीचे जा रहा है, जिसका कुछ हिस्सा तो इसके अतिमूल्यन में सुधार का है.
रुपये की ज्यादा मजबूती से आयात आकर्षक तथा सस्ते हो जाते हैं, जो स्थानीय उत्पादित वस्तुओं के विरुद्ध होता है. यह हमारे निर्यातों के लिए भी नकारात्मक होता है. इस तरह, नीचे जाता रुपया घरेलू उद्योगों के साथ ही निर्यातों तथा रोजगार के हितसाधन ही करता है. पर उसमें आती तेज गिरावट तो निश्चित ही एक बुरी खबर है. विश्व की अन्य मुद्राओं की तुलना में डॉलर का मूल्य स्वयं ही अधोमुखी है. इस तरह रुपये के निमित्त तो वस्तुतः यह दोहरी गिरावट है.
प्रतिकूलता का दूसरा वृहत कारक तेल की कीमतें है. कच्चे तेल की सर्वाधिक प्रमुख किस्म ब्रेंट की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गयी है और आसार ये हैं कि यह 100 डॉलर तक पहुंच सकती है. अमेरिका द्वारा ईरान पर एक बार फिर प्रतिबंध का अर्थ यह होगा कि तेल की कीमतें ऊंची बनी रहेंगी. पिछले वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारत द्वारा तेल आयात के बिल 50 अरब डॉलर अधिक ऊपर चले जायेंगे, जिसकी कुल लागत हमारे जीडीपी के आठ प्रतिशत तक चढ़ जायेगी.
तीसरा कारक उच्च मुद्रास्फीति है, जिसकी मुख्य वजह भी तेल की कीमतें ही है, जो परिवहन तथा यातायात की लागतें चढ़ाकर सामान्य मुद्रास्फीति को और भी ऊंचाई देती हैं. ऊपर से, यदि पर्याप्त बारिश न हुई, तो खाद्य मुद्रास्फीति की स्थिति और बदतर हो सकती है. चौथा कारक ऊंची ब्याज दरें है.
नीतिगत आधारभूत ब्याज दरें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा तय की जाती हैं, जिन पर तेल की ऊंची कीमतों तथा मुद्रास्फीति का प्रभाव पड़ना निश्चित है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक ने भी ब्याज दरों में इजाफा शुरू कर दिया है, जिसका नतीजा है कि वैश्विक दरें भी उर्ध्वमुखी हैं. ऊंची ब्याज दरें निवेश को महंगा बना देती हैं, क्योंकि बैंक ऋण महंगे हो जाते हैं. इससे खासकर आर्थिक वृद्धि के प्रमुख प्रोत्साहक आवासन ऋण एवं रियल एस्टेट क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
उपर्युक्त चार प्रमुख वृहत विपरीत कारकों के नतीजतन चालू खाते का घाटा ज्यादा बदतर होगा. यदि यह जीडीपी के तीन प्रतिशत का स्पर्श कर लेता है, तो उसे खतरे की घंटी माना जाता है, जो रुपये की गिरावट तेज कर सकता है.
इसका परिणाम यह हो सकता है कि विदेशी निवेशक आतंकित हो भागने लगें, जो स्टॉक तथा बांड बाजार पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा. गिरते रुपये की रफ्तार थामने को रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप की जरूरत होती है. खैरियत यह है कि अभी विदेशी मुद्रा भंडार भरा-पूरा है. इस स्थिति का एक अन्य परिणाम यह है कि तेल पर सब्सिडी की रकम बढ़ जायेगी. 2014 से 2017 के बीच के तीन वर्षों में देश ने तेल आयात बिलों में कुल लगभग 180 अरब डॉलर की भारी बचत की, जो जीडीपी के नौ प्रतिशत के बराबर थी.
इसके नतीजतन तेल की सब्सिडी पर हुई भारी बचत से राजकोषीय घाटे को स्थिर करने में मदद मिली. तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद पेट्रोल तथा डीजल की कीमतें नीचे नहीं आने दी गयीं. उत्पाद करों में लगभग 150 प्रतिशत तक वृद्धि कर गिरी कीमतों के राजकोषीय लाभ को अंशतः बुनियादी संरचना तथा कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च किया गया.
अब चूंकि तेल की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं, तो क्या उत्पाद करों में कमी लाकर उपभोक्ताओं के लिए उसकी मार हल्की करने की कोशिशें की जायेंगी? मगर राजकोषीय हालात इस उदारता की अनुमति नहीं देते.
किसानों के लिए ऋणमाफी तथा केंद्र प्रायोजित योजनाओं के संचालन जैसे अतिरिक्त राजकोषीय दबावों की वजह से खासकर राज्यों के स्तर पर (जहां पेट्रोल तथा डीजल उत्पाद करों के आधे हिस्से लगाये जाते हैं) राजकोषीय स्थिति भी दबाव में है, जो इन विपरीत कारकों का तीसरा अन्य नतीजा है. और अंततः चूंकि अब आम चुनाव निकट हैं, सो लोकलुभावन कदमों के कारण पड़नेवाले अतिरिक्त राजकोषीय दबावों में कोई कमी संभावित नहीं दिखती.
इस तरह, यह स्पष्ट है कि हम वृहद चुनौतीपूर्ण आर्थिक परिदृश्य की ओर बढ़ रहे हैं. राहत की बात यह है कि अभी प्रोत्साहित करनेवाले कई सूक्ष्म संकेतक मौजूद हैं, जैसे टेलीकॉम तथा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को छोड़कर कई क्षेत्रों से संबद्ध कॉरपोरेट नतीजे सुधर रहे हैं.
रुपये की कीमत में गिरावट निर्यातों को प्रोत्साहित कर रही है. पिछले वर्ष इंजीनियरिंग निर्यातों में 17 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी, जिनमें अकेले अमेरिका को किये गये निर्यातों का हिस्सा 44 प्रतिशत बढ़ा. कीमतें नीची रहने के बावजूद, पिछले वर्ष कृषि उत्पादन ने रिकॉर्ड स्तर को छू लिया, इसलिए कृषि निर्यात में भी वृद्धि संभावित है.
ईरान को तेल की कीमतों के भुगतान रुपये में स्वीकार करने को राजी किया जा सकता है, ताकि उस पर लगे प्रतिबंधों की काट हो सके. छोटी फर्मों के लिए इक्विटी तथा बांड वित्त प्रदान सहित गैर बैंक वित्त स्वस्थ वृद्धि बता रहे हैं, जो धीमे पड़ते बैंक ऋणों की कुछ हद तक क्षतिपूर्ति कर सकेंगे.
दिवालिया प्रक्रिया की शुरुआती सफलताएं भी बैंकों पर बुरे ऋणों के बोझ कुछ हल्की कर सकेंगी. संकटग्रस्त परिसंपत्तियां नये स्वामियों का वरण कर कुछ रुकी पड़ी कंपनियों एवं परियोजनाओं को अग्रसर कर सकेंगी, जो दिलासाजनक है. उपभोक्ता व्यय तेजी दिखा रहे हैं और खासकर नागरिक विमानन यातायात की वृद्धि तो लगातार तीसरे वर्ष भी 20 प्रतिशत से भी ऊंचे रुझान पर अग्रसर है. वालमार्ट द्वारा लगी फ्लिपकार्ट की ऊंची बोली स्टार्टअपों और खासकर ई-वाणिज्य के लिए शुभ संकेत है. फिनटेक, ई-वाणिज्य, डिजिटल एवं टेलीकॉम स्टार्टअपों के बीच तेज गतिविधियां जारी हैं, जिनमें से कुछ तो रूपांतरकारी भी सिद्ध हो सकते हैं.
इस तरह जो अंतिम नतीजा हमें हाथ लगता है, वह विपरीत वृहद कारकों, मगर सुदृढ़ होते सूक्ष्म प्रदर्शनों का है. कोई अचरज नहीं कि अर्थव्यवस्था के पोत को स्थिरता प्रदान करने में लगे हमारे नीतिनिर्धारकों के लिए आगामी महीने खासे व्यस्ततापूर्ण होने जा रहे हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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