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जरूरी है पुतिन से संवाद

II पुष्पेश पंत II वरिष्ठ स्तंभकार pushpeshpant@gmail.com बात सबसे पहले रेखांकित करने लायक है, वह यह कि शिखर पर विराजमान नेताओं की कोई भी मुलाकात अनौपचारिक नहीं होती. विदेश विभाग इनकी जमीन सावधानी से बहुत पहले से तैयार करता है. अकस्मात बहुपक्षीय सम्मेलनों वाली नाटकीय मुलाकातें भी पूर्व नियोजित ही होती हैं. इसके साथ ही […]

II पुष्पेश पंत II
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com
बात सबसे पहले रेखांकित करने लायक है, वह यह कि शिखर पर विराजमान नेताओं की कोई भी मुलाकात अनौपचारिक नहीं होती. विदेश विभाग इनकी जमीन सावधानी से बहुत पहले से तैयार करता है. अकस्मात बहुपक्षीय सम्मेलनों वाली नाटकीय मुलाकातें भी पूर्व नियोजित ही होती हैं.
इसके साथ ही यह बात भी याद रखने लायक है कि पुतिन के प्रति नरेंद्र मोदी का रुझान एकाएक नहीं हुआ है. वह ओबामा को बराक-बराक कहकर भले ही पुकारते रहे हों, उनके उत्तराधिकारी ट्रंप को डोनाल्ड कहने का लालच उनको अभी तक नहीं हुआ है. ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से भारत के हितों के प्रति अमेरिका की संवेदनशून्यता के मद्देनजर दूसरे विकल्प तलाशना दूरदर्शी बुद्धिमत्ता ही है, जिसमें मीन-मेख निकालना न्यायसंगत नहीं दिखता. यह मोदी की लाचारी-कमजोरी नहीं, भारत की मजबूरी ही कही जा सकती है.
इसका अर्थ यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि भारत की अमेरिका को रूस के माध्यम से संतुलित करने की राजनयिक मनोकामना आसानी से पूरी हो सकती है. जबसे पुतिन ने सत्ता संभाली है, उनका रुख यूरोप की तरफ अधिक रहा है. यूक्रेन में हस्तक्षेप हो अथवा क्रीमिया पर कब्जा या फिर पूर्वी यूरोप के अपने कभी उपग्रह रहे राज्यों पर यूरोपीय समुदाय से अलग-थलग रहने के लिए दबाव बढ़ाना उनके राजनय ने सोवियत संघ के दिनों वाली रूस की यूरेशियाई पहचान घटायी है.
भारत के लिए इससे भी चिंताजनक बात यह है कि पुतिन के रूस ने पाकिस्तान तथा भारत के बीच समसामीप्य वाली नीति अपनायी है. उसने पाकिस्तान के साथ हथियारों का सौदा कर भारत को यह संदेश दिया है कि यदि वह सैनिक साज-सामान की खरीद कहीं और से करता है, तो रूस के अन्य देशों के साथ सामरिक सौदों पर आपत्ति नहीं कर सकता. यह नकारा नहीं जा सकता कि राफेल लड़ाकू विमानों के बेड़े का सौदा हो या इस्राइल के साथ इस क्षेत्र में बढ़ती घनिष्ठता यह रूस के साथ विशेष रिश्तों को हाशिये पर डालनेवाली ही साबित हुई है.
यहां विस्तार से इस बात का विश्लेषण असंभव है कि सोवियत संघ के विखंडन के बाद भारत को इस मामले में कितनी अड़चनों का सामना करना पड़ा है या फिर देरी के कारण खरीद की कीमत में कितना नुकसानदेह इजाफा हुआ है, जिसका खामियाजा दोस्ती के नाम पर भारत को भुगतना पड़ा है.
बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय संबंध व्यक्तिगत मित्रता पर नहीं, राष्ट्रहित की अतियथार्थवादी कसौटी पर ही कसे जाते हैं. सो ओबामा हों या पुतिन, शी जिनपिंग, नवाज शरीफ हों या शिंजो एबे हों, मोदी के करिश्मे या इन नेताओं के साथ शारीरिक भाषा में हाव-भाव से संपादित संवाद की चर्चा व्यर्थ है. आकलन इसका होना चाहिए कि दोनों देशों के हितों का सन्निपात इस समय कितना हो रहा है और निकट भविष्य में इसके बने रहने की कितनी संभावना है?
भारत इस बात से भी आशंकित रहा है कि पुतिन के शासनकाल में रूस के संबंध चीन के साथ निरंतर सामान्य यानी बेहतर हुए हैं. चीन साइबेरिया के तेल गैस भंडार का सबसे आकर्षक ग्राहक है और भारत सखालिन में उससे होड़ नहीं ले सकता. रूस चीन के वन बेल्ट वन रोड का विरोधी नहीं, जबकि भारत को इससे बड़ा खतरा महसूस होता है.
शंघाई सहकार संगठन में रूस, भारत, चीन साथ हैं, पर नाममात्र को ही. चीन की पाकिस्तान के साथ मैत्री अब भी हमारे लिए जोखिम पैदा करती है. चीन के समर्थन से ही पाकिस्तान में पनाह लेनेवाले हाफिज सईद जैसे दहशतगर्दों पर अंकुश लगाना कठिन हुआ है. कुल मिलाकर, हमारे लिए इस घड़ी यह बेहद महत्वपूर्ण है कि हम हर विकल्प को अपने हित में इस्तेमाल करें. पुतिन की अब तक की ‘बेरुखी’ के कारण आहत अहंकार वाली मुद्रा अख्तियार करना गंभीर भूल होगी.
याद रहे इस समय पुतिन को भी भारत की जरूरत है. ब्रिटेन में पूर्व रूसी गुप्तचर और उसकी बेटी पर कातिलाना हमले के आरोप के बाद रूसी सरकार कटघरे में है. ब्रिटेन की सरकार ही नहीं, बहुतेरी अन्य यूरोपीय सरकारों ने पुतिन की कड़ी आलोचना की है और उनके राजनयिकों को अपने देश से निकाला है. इसके पहले भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में रूसी खुफिया एजेंसियों के गैरकानूनी हस्तक्षेप के कारण पुतिन अमेरिका में शत्रुवत देखे जाने लगे हैं, जो जान-बूझकर पश्चिम से मुठभेड़ की मुद्रा में रहते हैं.
यह खतरनाक टकराव मध्यपूर्व में साफ देखा जा सकता है, जहां अमेरिका तथा रूस आमने-सामने आर-पार की लड़ाई लड़नेवाले फौजियों-बागियों की मदद कर रहे हैं. इस मोर्चे पर संवाद धौंस-धमकी से ही जारी रहा है.
भारत की एक समस्या और है. अमेरिका यदि ईरान के साथ परमाण्विक समझौता खारिज करने के बाद उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाता है, तो भारत इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि ईरान से बड़ी मात्रा में हम तेल आयात करते हैं. इसके अलावा चाबहार बंदरगाह के निर्माण में भारत की भागीदारी अफगानिस्तान में हमारी मौजूदगी के संदर्भ में और पाकिस्तान में चीनी भारत-विरोधी घेराबंदी को नाकाम करनेवाली रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है. पुतिन के साथ सोची में मुलाकात से मोदी अमेरिका को यह स्पष्ट संकेत देने का प्रयास कर रहे हैं कि अमेरिका ही भारत का एकमात्र ऐसा मित्र नहीं, जिस पर वह गाढ़े वक्त में भरोसा कर सकता है.
रही बात चीन के साथ मनमुटाव और प्रतिद्वंद्विता के संदर्भ में रूस के साथ सहयोग और सहकार की, तो यह बात न भूलें कि चीन भी इस समय ट्रंप से खिन्न है. जिस वाणिज्य युद्ध का ऐलान ट्रंप ने किया है, उससे चीन को भारी आर्थिक नुकसान हो सकता है. चीन एक साथ सभी मोर्चों पर लड़ने की नादानी नहीं कर सकता. थोड़े समय के लिए ही सही भारत, रूस तथा चीन के राष्ट्रीय-सामरिक हितों में संयोग नजर आ रहा है.
मेरा मानना है कि विदेश नीति तथा राजनय के मामले में दलगत पक्षधरता से ऊपर उठना जरूरी है. आप मोदी या भाजपा-एनडीए के विरोधी हो सकते हैं और आंतरिक मोर्चे पर खासकर आर्थिक नीति-निर्धारण में इस सरकार की आलोचना करने को व्याकुल हों, पर मोदी की रूस यात्रा का अवमूल्यन मात्र पूर्वाग्रह या राजनीतिक पक्षधरता के कारण न करें. आज हमारे सर पर लाल टोपी रूसी भले न हो, पर पुतिन एक महाशक्ति के सर्वोच्च नेता हैं, जिनके साथ संवाद जरूरी है.

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