ताकि उन्नत हो साझी संस्कृति

शफक महजबीन टिप्पणीकार महज कुछ ही साल पहले रमजान के महीने में हमारी पहचान के कुछ हिंदू दोस्त लड़के-लड़कियां भी दो-तीन रोजे रख लिया करते थे. वे अक्सर रोजा रखने के लिए शुक्रवार या रविवार का दिन चुनते थे. क्योंकि शुक्रवार को जुमे की नमाज होती थी और रविवार को स्कूल की छुट्टी. कोई-कोई तो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 25, 2018 6:35 AM

शफक महजबीन

टिप्पणीकार

महज कुछ ही साल पहले रमजान के महीने में हमारी पहचान के कुछ हिंदू दोस्त लड़के-लड़कियां भी दो-तीन रोजे रख लिया करते थे. वे अक्सर रोजा रखने के लिए शुक्रवार या रविवार का दिन चुनते थे. क्योंकि शुक्रवार को जुमे की नमाज होती थी और रविवार को स्कूल की छुट्टी. कोई-कोई तो पूरे महीने के रोजे भी रख लिया करता था. वे दोस्ती-यारी में सिर्फ भूखे-प्यासे ही नहीं रहते थे, बल्कि रोजे के सारे अरकानों को भी मानते थे.

रोजा सिर्फ खाना-पानी छाेड़ना नहीं होता, बल्कि आंख, कान, हाथ, पैर आैर दिमाग का भी होता है. आंख का रोजा है कि गलत न देखें. कान का रोजा है कि गलत न सुनें. हाथ का रोजा है कि गलत न करें. पैर का रोजा है कि गलत राह में न बढ़ें. दिल-दिमाग का भी रोजा है कि गलत न सोचें. हमारे हिंदू दोस्त रोजे काे इसी एहतराम के साथ रहते थे. हम भी उनके त्योहारों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे.

शाम को रोजा खोलने के वक्त हिंदू दोस्तों को भी मस्जिद की अजान का इंतजार रहता था. भोर में वे सहरी का वक्त पूछा करते थे. लेकिन, आज तो अजान को लेकर गंदी राजनीति तक होने लगी है.

कितना अच्छा दौर था वह, जब ईद, बकरीद, होली, दिवाली, दहशहरा सभी त्योहारों को हर कोई मिलकर मनाता था. अक्सर एक-दूसरे के त्योहारों में दुकानदार लोग सामान लेकर बैठ जाते थे. इनमें से कई तो इसलिए बेचते थे, ताकि उसके जाननेवालों को उचित भाव में सामान मिल सके, नहीं तो कोई दूसरा ठग लेगा. सचमुच, उनका मकसद थोड़ा सा कमाना जरूर होता था, लेकिन धर्म का सम्मान करना ज्यादा था.

कितना अच्छा लगता था कि हम-सब एक-दूसरे के धर्मों का पूरा एहतराम करते थे. रक्षाबंधन, होली, दिवाली पर मुसलमान भी त्योहारों के सामान बेचते थे और ईद-बकरीद पर हिंदू लोग भी सेवइयों से दुकान सजा लेते थे. कहीं कोई भेदभाव नजर नहीं आता था. लेकिन अफसोस! अब यह बात कहीं-कहीं ही नजर आ रही है. हमारे समाज में जिस तरह से चीनी सामान या मुस्लिम देशों के सामानों का बेवजह विरोध होता है, उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है.

अबुल मुजाहिद जाहिद का शे’र है- ‘एक हो जायें तो बन सकते हैं खुर्शीद-ए-मुबीं. वरना इन बिखरे हुए तारों से क्या काम बने…’ यह सच बात है, हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई तारों की तरह बिखरे हुए हैं. अगर ये मिलकर सौहार्द के साथ रहें, तो सूरज बन जायें, जिससे यह दुनिया रोशन हो जायेगी.

भारत में त्योहार मिल-जुलकर मनाये जाते रहे हैं. यही भारतीय संस्कृति है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़े रखती है. पर लगता है इसे किसी की नजर लग गयी है. गंदी राजनीति की वजह से समाज में बहुत कट्टरता आ गयी है.

अब एक-दूसरे के त्योहारों में खुशी मनाना तो दूर, कुछ लोग दूसरे के त्योहारों पर उन्हें बधाई भी नहीं देना चाहते. सोचती हूं कि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो हम आनेवाली पीढ़ी को देश की साझी संस्कृति के बारे में क्या बतायेंगे. कट्टरता के बजाय धर्म-परंपराओं को सौहार्द के साथ मनाने से ही साझी संस्कृति उन्नत होगी.

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