भारतीय रेल की लेट-लतीफी
II अरविंद कुमार सिंह II पूर्व सलाहकार, भारतीय रेल arvindksingh.rstv@gmail.com न तो कुहरे का कुहराम मचा है, न बाढ़ या कोई बड़ी आपदा, फिर भी हमारी तमाम रेलगाड़ियां लेट-लतीफी की शिकार हैं कि देश में एक बहस शुरू हो गयी. पिछले एक साल के दौरान रेलवे में लेट-लतीफी की समस्या अधिक गंभीर हुई है, पर […]
II अरविंद कुमार सिंह II
पूर्व सलाहकार, भारतीय रेल
arvindksingh.rstv@gmail.com
न तो कुहरे का कुहराम मचा है, न बाढ़ या कोई बड़ी आपदा, फिर भी हमारी तमाम रेलगाड़ियां लेट-लतीफी की शिकार हैं कि देश में एक बहस शुरू हो गयी. पिछले एक साल के दौरान रेलवे में लेट-लतीफी की समस्या अधिक गंभीर हुई है, पर रेल मंत्री से लेकर रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया.
लेकिन, जैसे ही प्रगति मासिक बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेलगाड़ियों की लेट-लतीफी का हिसाब लिया और यात्री सुरक्षा के मसले पर नाराजगी जतायी, तो रेल मंत्रालय में हड़कंप मच गया. रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को दिल्ली-मुगलसराय खंड पर परिवहन के भारी दबाव को ढाल बनाया और बताया कि वहां क्षमता से अधिक रेलगाड़ियां चल रही हैं, इसी नाते समय-पालन नहीं हो पा रहा है. लेकिन, अब नये सिरे से रेलवे समय-पालन की दिशा में कमर कसने जा रही है. रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष ने उन आठ क्षेत्रीय रेलों के महाप्रबंधकों से जमीनी हकीकत जानने की कोशिश भी की, जहां पर रेलगाड़ियों के देरी से चलने की अधिक शिकायतें रही हैं.
पूर्व-तटीय रेलवे, पूर्व-मध्य रेलवे, पूर्व रेलवे, उत्तर-मध्य रेलवे, पूर्वोत्तर रेलवे, पूर्वोत्तर-सीमा रेलवे, उत्तर रेलवे और दक्षिण मध्य रेलवे के महाप्रबंधकों को स्थिति नियंत्रण में लाने को कहा गया, लेकिन तस्वीर बदली नहीं.
रेलवे वैसे तो समयपालन का दावा करती है, लेकिन हाल के महीनों में आम गाड़ियां तो छोड़ दें, राजधानी और शताब्दी तक लेट होने लगीं. साल 2017-18 के दौरान करीब तीस फीसदी रेलगाड़ियां बिलंब से चलीं.
कुछ ऐसी गड़ियां खास आलोचना का शिकार रही हैं, जो 50 से 70 घंटे तक लेट रहीं. आम आदमी की गाड़ी कही जानेवाली जननायक एक्सप्रेस को लेकर बहुत आलोचना हुई. गाड़ियों की बेइंतहा देरी ने मुसाफिरों को तो परेशान किया ही, सोशल मीडिया पर जमीनी हकीकत आने से रेलवे की कुव्यवस्था भी उजागर हुई. यात्रियों ने बताया कि गाड़ी की देरी से उनको किस तरह परेशानियां उठानी पड़ीं और कितना नुकसान हुआ. बहुत-से छात्र परीक्षा नहीं दे पाये, जबकि बहुतों को परीक्षा से बाहर होना पड़ा. यह सवाल भी उठा कि क्या रेलवे के लिए लोगों के समय की कोई कीमत ही नहीं है?
हाल में संसद में एक सवाल के जवाब में रेल मंत्रालय ने स्वीकार किया कि अप्रैल 2017 से मार्च 2018 के बीच करीब 17.5 फीसदी ट्रेनें कोहरे के कारण लेट हुई थीं, जबकि करीब 24.6 फीसदी ट्रेनें ब्रेकडाउन, इंजनों की खराबी, बिजली इंजनों के उपकरणों की खराबी, बिजली की दिक्कत, सवारी और माल डिब्बे की खराबी, इंजीनियरिंग, सिग्नल और दूरसंचार संबंधी विफलता के कारण लेट हुईं. यह तस्वीर रेलवे की गंभीर दशा बतलाती है.
यह हालत तब है, जब भारतीय रेल में समय-पालन में सुधार लाने के लिए 42 स्टेशनों पर कंट्रोल आॅफिस एप्लीकेशन के तहत गाड़ियों के आगमन और प्रस्थान संबंधी रिकाॅर्डिंग प्रणाली को डेटा लाॅगर्स के साथ लिंक किया गया है.
संदेह नहीं कि रेलवे ने क्षमता विकास की दिशा में कई कदम भी उठाये हैं. इसी आधार पर रेल मंत्री पीयूष गोयल तर्क दे रहे हैं कि दीर्घकालिक लाभ के लिए अल्पकालिक दर्द सहना पड़ेगा. संरक्षा के मामले में रेलवे कैसे कोई समझौता कर सकती है. सभी जानते हैं कि भारतीय रेल जापानी रेल नहीं है, जो एक मिनट की देरी पर भी माफी मांगे. लेकिन रेल मंत्री का ऐसा तर्क किसी के गले कैसे उतर सकता है.
भारतीय रेल के कायाकल्प के लिए डीवी सदानंद गौड़ा से लेकर सुरेश प्रभु सफल नहीं हुए, तो पीयूष गोयल लाये गये. फिर भी भारतीय रेल कई मोर्चों पर जूझ रही है. गाड़ी ही नहीं तमाम विकास परियोजनाएं भी लेट-लतीफी की चपेट में हैं. सुरक्षा-संरक्षा की चिंता के साथ लेबल क्राॅसिंग पर होनेवाली दुर्घटनाएं परेशानी की कारक बनी हुई हैं.
भारतीय रेल का नेटवर्क 67,368 किमी है, लेकिन भारी दबाव और चुनौतियों के साथ यह रफ्तार में भी फिसड्डी बनी हुई है. हमारी माल गाड़ियों की औसत रफ्तार 24 किमी से कम है और यात्री गाड़ियों की 45 किमी से भी कम. बुलेट ट्रेन पर जोर है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह आईना दिखा रही है. रेलवे पर भारी निवेश और आधुनिकीकरण के साथ कई कदम उठाने की जरूरत है. रेल यात्रियों की बेहतर सेवा की अपेक्षाएं बढ़ती जा रही हैं, लेकिन सेवाओं का स्तर लगातार गिर रहा है.
आजादी के बाद से यात्री यातायात 1,344 फीसदी और माल यातायात में 1,642 फीसदी बढ़ा, लेकिन रेलमार्ग महज 23 फीसदी ही बढ़ा है. आज रेलगाड़ियों की संख्या बढ़कर करीब 22 हजार हो गयी हैं, लेकिन रेल कर्मचारियों की संख्या 1991 के 18.7 लाख से घटकर अब 13 लाख हो गयी है.
रेलवे में 2.25 लाख से अधिक पद खाली पड़े हैं, जिसमें से सबसे जरूरी संरक्षा श्रेणी की रिक्तियां करीब 1.41 लाख से अधिक हैं. तमाम कर्मचारी भारी दबाव में काम कर रहे हैं.
रेलवे बोर्ड में सदस्य संरक्षा का पद सृजित करने और संरक्षा श्रेणी के रिक्त पदों को भरने के लिए संसद की रेल संबंधी स्थायी समिति भी सिफारिश कर चुकी है, लेकिन तस्वीर बदली नहीं. बीते सालों में पटरी से उतरने के मामले बढ़े हैं और रेल पथ के रख-रखाव में खामियां उजागर हुई हैं.
हर साल करीब पांच हजार किमी रेल पटरियों के नवीकरण की जरूरत है, लेकिन तीन हजार किमी के औसत से रेलवे आगे नहीं बढ़ पा रही है. कुल मिलाकर भारतीय रेल के ओवरहाॅल की जरूरत है.