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तेल की धार देखिए
II आशुतोष चतुर्वेदी II प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in पुरानी कहावत है कि तेल देखिए और तेल की धार देखिए. भारत में तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं और लोगों में इसको लेकर नाराजगी है. तेल की कीमतें राजनीतिक मुद्दा भी बनती जा रही है. राहुल गांधी इसको लेकर प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती […]
II आशुतोष चतुर्वेदी II
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
पुरानी कहावत है कि तेल देखिए और तेल की धार देखिए. भारत में तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं और लोगों में इसको लेकर नाराजगी है. तेल की कीमतें राजनीतिक मुद्दा भी बनती जा रही है. राहुल गांधी इसको लेकर प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे रहे हैं और कह रहे हैं कि कीमतें कम कीजिए अथवा धरने प्रदर्शन के लिए तैयार रहिए. भाजपा नेताओं में भी इसको लेकर बेचैनी नजर आ रही है. लेकिन अभी तक तेल की कीमतों में राहत को लेकर ऊहापोह की स्थिति है.
सरकार की ओर से ऐसे संकेत मिले हैं कि करों में कटौती करके लोगों को राहत दी जायेगी. पेट्रोलियम मंत्रालय की तेल कंपनियों के साथ बैठक से कुछ राहत की उम्मीद भी बंधी थी, लेकिन कुछ नतीजा नहीं निकला. दूसरी ओर, तेल कंपनियों के अधिकारी कह रहे हैं कि उनकी ओर से कीमतों में राहत की संभावना नहीं है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कीमतें चढ़ी हुईं हैं. हम सभी जानते हैं कि पेट्रोल और डीजल की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गयी हैं. पांच साल पहले मुंबई में 84.07 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल बिका था. अब यह रिकॉर्ड टूट चुका है.
तेल की कीमतों के बढ़ने की दो कारण हैं- एक कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और दूसरा डॉलर के मुकाबले कमजोर होता जा रहा रुपया. ईरान पर अमेरिका के प्रतिबंध के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें चढ़ी हैं, लेकिन दाम 2013 के मुकाबले अब भी कम हैं. यह कीमत लगभग 80 डॉलर प्रति बैरल है.
पांच साल पहले यह कीमत 91 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गयी थी. 2009 से 2010 के बीच एक वक्त अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम 140 डॉलर प्रति बैरल तक चला गया था. लेकिन, तब भी तेल की कीमतों को नियंत्रित रखा जा सका था. भारत अपने तेल का आयात मुख्य रूप से मध्य पूर्व के देशों से करता है और वहां राजनीतिक अस्थिरता चल रही है. अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंधों की घोषणा की है. इससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की आपूर्ति पर असर पड़ेगा. इससे भारत की आपूर्ति भी प्रभावित हो सकती है, क्योंकि ईरान भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश है.
विशेषज्ञों का कहना है कि ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध, वेनेजुएला में राजनीतिक संकट और इराक में अस्थिरता से तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में तेजी आयी है. मौजूदा स्थिति यह है कि भारत इराक से सबसे अधिक तेल खरीदता है, दूसरे नंबर पर सऊदी अरब है और तीसरे पर ईरान है. अभी एक और संकट आने वाला है.
ईरान पर प्रतिबंधों के बाद आशंका यह है कि अमेरिका भारत पर दबाव डाल सकता है कि वह उससे कच्चा तेल न खरीदे. सबसे चिंताजनक बात यह है कि भारत तेल की अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए 80 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है और पिछले कुछ समय से लगातार इसकी मांग में बढ़ोतरी होती जा रही है.
पेट्रोल की कीमतों से सीधे तौर पर आप और हम प्रभावित होते हैं, जबकि डीजल महंगा होने से महंगाई बढ़ती है और रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं. दरअसल, हमारी पूरी परिवहन व्यवस्था डीजल पर आधारित है. ट्रक-बस सब डीजल पर चलते हैं.
इसलिए डीजल के महंगे होने से सब्जी, दाल-चावल और बसों का भाड़ा सब महंगे हो जाते हैं. देश में 85 फीसदी से अधिक माल की ढुलाई ट्रकों के माध्यम से होती है. जाहिर है कि डीजल बढ़ने से इनका भाड़ा बढ़ेगा. यह तो है तस्वीर का एक पहलू. इसका दूसरा पहलू भी समझना बेहद जरूरी है.
भारत में तेल की कीमतें निर्धारित कैसे होती हैं और उसमें टैक्स कितना लगता है. भारत में तेल की कीमतें अपने पड़ोसी मुल्कों के मुकाबले कहीं अधिक हैं. इसका कारण है भारत में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें इस पर जमकर टैक्स लगाती हैं. उनका तर्क है कि राज्य की कल्याणकारी योजनाओं को चलाने के लिए यह जरूरी है. मोदी सरकार की भी दलील है कि तेल से होने वाली आमदनी का सरकार कल्याणकारी योजनाओं और बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट चलाने में इस्तेमाल कर रही है.
जब 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तब तेल की कीमतें 113 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 50 डॉलर पर आ गयीं थीं. प्रधानमंत्री मोदी सार्वजनिक सभाओं में कहते भी थे कि यह तो उनका नसीब है कि उनके कार्यकाल के दौरान कच्चे तेल की कीमतें इतनी कम हो गयीं. यह स्थिति लगभग तीन साल चली. लेकिन टैक्स के कारण आम आदमी तक सस्ते तेल का लाभ नहीं पहुंचा.
मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद तेल पर एक्साइज ड्यूटी को कई बार बढ़ाया, लेकिन घटाया सिर्फ एक बार. फिक्की के अनुसार 2014 से 2016 के दौरान जब कच्चा तेल सस्ता था, केंद्र ने एक्साइज ड्यूटी को नौ बार बढ़ाया. सरकार ने एक्साइज ड्यूटी को पेट्रोल पर 11.77 रुपये लीटर और डीजल पर 13.47 रुपये लीटर तक बढ़ाया, लेकिन सिर्फ दो रुपये घटाया यानी इस दौरान सरकार की कमाई करोड़ों में हुई.
तेल पर कितना टैक्स लगता है, यह बात एक उदाहरण से स्पष्ट होगी. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 21 मई को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 76.56 रुपये थी. तेल कंपनियां पेट्रोल पंप डीलर को पेट्रोल 37.19 रुपये में उपलब्ध करा रहीं थीं. डीलर का कमीशन 3.62 प्रति लीटर अतिरिक्त था.
इसके बाद केंद्र सरकार इस पर 19.48 रुपये और राज्य सरकार 16.28 रुपये टैक्स लगा रही थी. लगभग 37 रुपये का पेट्रोल टैक्स के बाद 76 रुपये में बिक रहा था. महाराष्ट्र में तो राज्य सरकार के टैक्स के कारण पेट्रोल की कीमत 80 रुपये को पार कर गयी. अब केंद्र सरकार का रवैया देखिए.
पेट्रोलियम मंत्रालय ने तेल कंपनियों की बैठक कीमत कम करने के लिए बुलायी, जबकि कच्चा तेल महंगा होने के कारण तेल कंपनियां के लिए दाम कम करने की गुंजाइश बहुत कम है. टैक्स तो केंद्र सरकार को कम करना है, जिस पर अभी विचार किया जा रहा है. राजनीति कैसे की जाती है, इसकी मिसाल भी देखिए. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को इस मुद्दे पर चुनौती दी है.
लेकिन अगर कांग्रेस की पंजाब सरकार और कांग्रेस समर्थित कर्नाटक सरकार अपने टैक्स में कटौती कर पहले पेट्रोल और डीजल सस्ता कर एक मिसाल पेश करतीं और फिर राहुल गांधी प्रधानमंत्री को चुनौती देते, तो उसका व्यापक असर पड़ता और भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारें दबाव में आ जातीं. केंद्र सरकार कह रही है कि वह तेल की कीमतों को लेकर दीर्घकालिक योजना पर काम कर रही है.
लेकिन मुझे लगता है कि मौजूदा परिदृश्य में सरकार के पास सीमित विकल्प हैं. एक, या तो वह तेल कंपनियों को सब्सिडी देकर उनसे तेल की कीमतों को कम करने के लिए कहे. दूसरा करों में कटौती करे. लेकिन सरकार का जल्द ही कोई निर्णय करना होगा.
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