हिंदी दैनिक की अंग्रेजों पर वह विजय

II कृष्ण प्रताप सिंह II वरिष्ठ पत्रकार kp_faizabad@yahoo.com आयरिश नागरिक जेम्स आगस्टस हिकी 1780 में 29 जनवरी को अंग्रेजी में ‘कल्कत्ता जनरल एडवर्टाइजर’ नामक पत्र शुरू कर चुके थे. उनके इस पत्र को ‘बंगाल गजट’ के नाम से भी जाना जाता था और वह भारतीय एशियाई उपमहाद्वीप का किसी भी भाषा का पहला समाचार-पत्र था. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 30, 2018 5:58 AM
II कृष्ण प्रताप सिंह II
वरिष्ठ पत्रकार
kp_faizabad@yahoo.com
आयरिश नागरिक जेम्स आगस्टस हिकी 1780 में 29 जनवरी को अंग्रेजी में ‘कल्कत्ता जनरल एडवर्टाइजर’ नामक पत्र शुरू कर चुके थे. उनके इस पत्र को ‘बंगाल गजट’ के नाम से भी जाना जाता था और वह भारतीय एशियाई उपमहाद्वीप का किसी भी भाषा का पहला समाचार-पत्र था. इसके बावजूद हिंदी को अपने पहले समाचार-पत्र के लिए 1826 तक प्रतीक्षा करनी पड़ी. बहरहाल, आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है.
कानपुर से आकर कलकत्ता में सक्रिय वकील पंडित जुगलकिशोर शुक्ला ने 1826 में आज के ही दिन यानी 30 मई को वहां बड़ा बाजार के पास के 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला से ‘हिंदुस्तानियों के हित’ में साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन शुरू किया, जो हर मंगलवार को पाठकों तक पहुंचता था.
तब तक देश की नदियों में इतना पानी बह चुका था कि वायसराय वारेन हेस्टिंग्ज की पत्नी की हरकतों के आलोचक बनकर उनके कोप के शिकार हुए जेम्स आगस्टस हिकी जेल जाने को अभिशप्त हो गये थे और उन्होंने ‘देश का पहला उत्पीड़ित संपादक’ होने का श्रेय भी अपने नाम कर लिया था. जेल की सजा के बाद भी हिकी ने झुकना कुबूल नहीं िकया और जब तक संभव हुआ, जेल से भी हेस्टिंग्ज और उनकी पत्नी के कारनामे लिखते रहे.
हिंदी की इस लंबी प्रतीक्षा का एक बड़ा कारण पराधीन देश की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में शासकों की भाषा अंग्रेजी के बाद बंगला और उर्दू का प्रभुत्व था. तब हिंदी के ‘टाइप’ तक दुर्लभ थे और प्रेस आने के बाद शैक्षिक प्रकाशन शुरू हुए, तो वे भी बंगला और उर्दू में ही थे. हां, ‘उदंत मार्तंड’ से पहले 1818-19 में कलकत्ता स्कूल बुक के बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ में कुछ हिस्से हिंदी के भी होते थे.
‘उदंत मार्तंड’ के पहले अंक की पांच सौ प्रतियां छापी गयी थीं और नाना प्रकार की दुश्वारियों से दो-चार होता हुआ यह अपनी सिर्फ एक वर्षगांठ मना पाया था.
एक तो हिंदी भाषी राज्यों से बहुत दूर होने के कारण उसके लिए ग्राहक या पाठक मिलने मुश्किल थे. दूसरे, मिल भी जाएं, तो उसे उन तक पहुंचाने की समस्या थी. सरकार ने 16 फरवरी, 1826 को पंडित जुगल किशोर और उनके बस तल्ला गली के सहयोगी मुन्नू ठाकुर को उसे छापने का लाइसेंस तो दे दिया था, लेकिन बार-बार के अनुरोध के बावजूद डाक दरों में कोई रियायत देने को तैयार नहीं हुई थी. एक और बड़ी बाधा थी. उस वक्त तक हिंदी गद्य का रूप स्थिर करके उसे पत्रकारीय कर्म के अनुकूल बनानेवाला कोई मानकीकरण नहीं हुआ था, जैसा बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ के अहर्निश प्रयासों से संभव हुआ. ऐसे में ‘उदंत मार्तंड’ की भाषा में खड़ी बोली और ब्रजभाषा का घालमेल-सा था. चार दिसंबर, 1827 को प्रकाशित अंतिम अंक में इसके अस्ताचल जाने यानी बंद होने की बड़ी ही मार्मिक घोषणा की गयी थी.
इसके बावजूद हिंदी को अपने पहले दैनिक के लिए फिर लंबी प्रतीक्षा से गुजरना पड़ा. हां, देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम से तीन साल पहले 1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित ‘समाचार सुधावर्षण’ ने इस प्रतीक्षा का शानदार अंत किया.
सन् 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो श्यामसुुंदर सेन ने अंग्रेजों के खिलाफ ‘समाचार सुधावर्षण’ में भी एक मोर्चा खोल दिया. उन्होंने निर्भीकतापूर्वक संग्राम की अंग्रेजों के लिए खासी असुविधाजनक खबरें तो छापीं ही, विभिन्न कारस्तानियों को लेकर उनके वायसराय तक को लताड़ते रहे.
उन्होंने बागियों द्वारा फिर से तख्त पर बैठा दिये गये सम्राट बहादुरशाह जफर के उस संदेश को भी खासी प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिसमें जफर ने हिंदुओं-मुसलमानों से अपील की थी कि वे अपनी सबसे बड़ी नेमत आजादी के अपहर्ता अंग्रेजों को बलपूर्वक देश से बाहर निकालने का पवित्र कर्तव्य निभाने के लिए कुछ भी उठा न रखें. अंग्रेजों ने इसे लेकर 17 जून, 1857 को सेन और ‘समाचार सुधावर्षण’ के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें अदालत में खींच लिया.
उनके सामने अभियोग से बरी होने का एक ही विकल्प था कि वे माफी मांग लें. दूसरी भाषाओं के कई पत्र व संपादक ‘छुटकारा’ पाने के लिए ऐसा कर भी रहे थे, लेकिन अपने देशाभिमान के चलते उन्हें ऐसा करना गवारा नहीं हुआ.
हां, उन्होंने अपने पक्ष में ऐसी मजबूत कानूनी दलीलें दीं कि पांच दिनों की लंबी बहस के बाद अदालत ने उनके इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि देश की सत्ता अब भी वैधानिक या तकनीकी रूप से बहादुरशाह जफर में ही निहित है.
देशद्रोही तो वास्तव में अंग्रेज हैं, जो गैरकानूनी रूप से मुल्क पर काबिज हैं और उनके खिलाफ अपने बादशाह का संदेश छापकर समाचार सुधावर्षण ने देशद्रोह नहीं किया, बल्कि उसके प्रति अपना कर्तव्य निभाया है.
देश पर अंग्रेजों के कब्जे को उनकी ही अदालत में उन्हीं के चलाये मामले में गैरकानूनी करार देनेवाली यह जीत तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता के हिस्से आयी एक बहुत बड़ी जीत थी, जिसने उसका मस्तक स्वाभिमान से ऊंचा कर दिया था. इसलिए भी कि जब दूसरी भाषाओं के कई पत्रों ने सरकारी दमन के सामने घुटने टेक दिये थे, हिंदी का यह पहला दैनिक निर्दंभ अपना सिर ऊंचा किये खड़ा था.

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