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शिक्षा पद्धति में सुधार जरूरी

II जेएस राजपूत II पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी rajput_js@yahoo.co.in सीबीएसइ बोर्ड की दसवीं और बारहवीं का परीक्षा परिणाम आ चुका है. बच्चों ने रिकॉर्ड कायम करते हुए 98-99 प्रतिशत तक नंबर लाये हैं. किसी बच्चे द्वारा 500 नंबर में 499 नंबर हासिल करना यानी चार विषय में पूरे-पूरे सौ नंबर और एक विषय में 99 नंबर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 31, 2018 6:45 AM

II जेएस राजपूत II

पूर्व निदेशक, एनसीईआरटी

rajput_js@yahoo.co.in

सीबीएसइ बोर्ड की दसवीं और बारहवीं का परीक्षा परिणाम आ चुका है. बच्चों ने रिकॉर्ड कायम करते हुए 98-99 प्रतिशत तक नंबर लाये हैं. किसी बच्चे द्वारा 500 नंबर में 499 नंबर हासिल करना यानी चार विषय में पूरे-पूरे सौ नंबर और एक विषय में 99 नंबर या फिर इसी तरह के कुछ दूसरे आंकड़े पर पहुंचना, यह सवाल पैदा करता कि आखिर कुछ विषयों में, जैसे राजनीति शास्त्र या अंग्रेजी आदि में, सौ में सौ नंबर ले आना कैसे संभव है!

जहां यह सवाल महत्वपूर्ण है, वहीं एक सवाल और है कि क्या किसी बच्चे का 499 नंबर पाना, उसके साथ कहीं अन्याय तो नहीं है? बिल्कुल अन्याय है, क्योंकि जैसे ही वह आगे की पढ़ाई के लिए तैयार होगा, उसके सिर पर 499 नंबर का एक बड़ा सा संख्या-दबाव काम करेगा कि अब उससे कम नहीं होना है.

लेकिन, आगे यह मुमकिन नहीं हो पाता है, क्योंकि हर परीक्षा का मूल्यांकन अलग-अलग तरीके से होता है और हर कक्षा वर्ग की अपनी अलग अहमियत होती है.

ज्यादा से ज्यादा नंबर हासिल करने की प्रवृत्ति पिछले दस-बारह साल में शुरू हुई है, उसके पहले ऐसा नहीं होता था. मेरे ख्याल में नंबरों का यह बोझ बच्चाें के लिए ठीक नहीं है.

इसलिए मेरा विचार है कि सारे बोर्ड को और सीबीएसइ को भी साथ में बैठकर शिक्षाशास्त्रियों और विद्वानों से इस पर रायशुमारी करनी चाहिए और गहन विचार-विमर्श करना चाहिए कि हम अपने बच्चों का मूल्यांकन किस तरह से करें, उनकी प्रतिभा-क्षमता को कैसे परखें. दूसरी बात यह भी है कि परीक्षा पैटर्न और सवालों के पूछने का तरीका क्या है, इस पर भी विचार होना चाहिए.

क्योंकि सवाल पूछने और उत्तर पुस्तिका में उसका एकदम सटीक उत्तर लिखने में यह जरूरी नहीं कि बच्चे के मानसिक विकास का विश्लेषण किया जा सकेगा.

हमारे स्कूलों में पढ़ाई की प्रणाली ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि बच्चा खुद से विचार करने की प्रवृत्ति अपनाये. ज्यादा नंबर लाने के चक्कर में बच्चों को सिर्फ रट्टू नहीं बनाया जाना चाहिए, बल्कि उनमें सोचने-समझने की क्षमता के विकास के साथ विश्लेषण करने की क्षमता भी विकसित की जानी चाहिए. जाहिर है, ज्यादा नंबर ले आने की प्रवृत्ति से ऐसा करना संभव नहीं है.

ज्यादा नंबर की भूख बच्चों में निराशा भी पैदा करती है. परीक्षा के पहले भी और परीक्षा के बाद में भी. परीक्षा के पहले ही सौ में सौ लाने के दबाव से उपजी निराशा और परीक्षा के बाद कम नंबर आने से उपजी भारी निराशा.

यही वजह है कि अच्छे-खासे होनहार बच्चे भी कुछ नंबर के कम होने के कारण आत्महत्या तक कर लेते हैं. ज्यादा से ज्यादा नंबर की यह भूख हमारी गलत शिक्षा पद्धति का परिणाम है. आज इसमें सुधार करना बहुत जरूरी हो गया है.

परीक्षा पद्धति में सुधार की बात हो या शिक्षा पद्धति में बदलाव की बात हो, यह जिम्मेदारी सिर्फ शिक्षकों या स्कूलों की नहीं होनी चाहिए, बल्कि इन दोनों के साथ समाज और घर-परिवार की भी उतनी ही जिम्मेदारी है.

अक्सर देखा जाता है कि अभिभावक इस बात से परेशान दिखते हैं कि उनका बच्चा पड़ोसी के बच्चे से कम नंबर ले आया है. अभिभावक की इस इच्छा का सबसे ज्यादा असर उसके बच्चे पर ही पड़ता है.

उसमें नकारात्मकता घर कर जाती है कि वह तो अच्छे नंबर ला ही नहीं सकता. और इस तरह से एक अच्छा-खासा तेज दिमाग वाला बच्चा भी सौ में सौ पाने के लिए प्रतिस्पर्द्धात्मक रवैया अख्तियार कर लेता है. प्रतिस्पर्द्धा होनी चाहिए, लेकिन अगर वह दबाव के साथ होगी, तो बच्चे में नकारात्मकता और निराशा आ ही जायेगी. वहीं दूसरी ओर, कुछ अभिभावक खुद ही अपने बच्चे के लिए नकल की व्यवस्था में लग जाते हैं.

मेरा मानना है कि स्कूलों में बच्चों पर कम से कम दबाव होना चाहिए. नंबर लाने का दबाव तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए. यही वह उम्र होती है, जब उन्हें दबाव-मुक्त होकर जीने की जरूरत होती है. नयी-नयी चीजें सीखने की उम्र होती है और नयी चीजों पर चर्चा करने की क्षमता विकसित होती है.

उनको नया सीखने का सुख मिलना चाहिए. इसलिए दबाव से परे रख बच्चों में पावर ऑफ इमेजिनेशन और पावर ऑफ आइडिया को विकसित किया जाना चाहिए, न कि उनसे यह कहा जाये कि यह रट लो, वह रट लो, तो सौ में सौ नंबर आ जायेंगे. रटनेवाले बच्चे में सोचने की क्षमता कम हो जाती है. शुरू में तो वह रट लेता है, लेकिन आगे उसे परेशानी उठानी पड़ती है.

ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने के लिए रटना तो मजबूरी होती है. यह प्रवृत्ति नकल की परंपरा को जन्म देती है और स्कूल और नकल माफिया मिलकर नकल का गंदा कारोबार तक करने लगते हैं.

इसका बढ़िया उदाहरण है बिहार में कुछ साल पहले टॉपर वह लड़की, जिसने अपने बयान में कहा था कि- ‘मैं तो सेकेंड की उम्मीद कर रही थी, लेकिन चाचा ने मुझे टॉप करा दिया.’ आप समझ सकते हैं कि इस तरह की शिक्षा व्यवस्था हमारे बच्चों के भविष्य के साथ कितना खिलवाड़ कर सकती है.

उस बच्ची की क्या गलती थी? लेकिन वह बदनाम हो गयी! अगर टीचर, स्कूल मैनेजमेंट और अभिभावक चाह लें, तो कभी ऐसी नौबत ही नहीं आयेगी. बच्चे अच्छे नंबरों से पास भी होंगे और उनमें नकारात्मकता भी नहीं आयेगी. यह मेरा विश्वास है.

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