खलता है राजकिशोर का जाना

प्रभात रंजन कथाकार होश संभालने के बाद पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हुए जिन लेखकों के नाम याद रह गये, उनमें एक नाम राजकिशोर जी का था. हमारे घर में ‘रविवार’ आता था. रविवार में उनको पढ़ता था. बाद में जब दिल्ली विवि में पढ़ रहा था, तो हिंदी में वैचारिक पुस्तकों की बेहद कमी महसूस होती […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 5, 2018 7:55 AM

प्रभात रंजन

कथाकार

होश संभालने के बाद पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हुए जिन लेखकों के नाम याद रह गये, उनमें एक नाम राजकिशोर जी का था. हमारे घर में ‘रविवार’ आता था. रविवार में उनको पढ़ता था. बाद में जब दिल्ली विवि में पढ़ रहा था, तो हिंदी में वैचारिक पुस्तकों की बेहद कमी महसूस होती थी. ऐसी कोई किताब मिलती ही नहीं थी, जिसमें समकालीन राजनीतिक मुद्दों पर वैचारिक निबंध पढ़ने को मिल जाये. उन दिनों ‘आज के प्रश्न’ शृंखला ने इस मुश्किल को हल किया. उस शृंखला के संपादक राजकिशोर थे. इसके जरिये उन्होंने एक पूरी पीढ़ी को विचार समृद्ध बनाने का काम किया.

उनको याद करता हूं, तो मुझे प्रसिद्ध धारावाहिक ‘बुनियाद’ के मास्टर हवेलीराम के किरदार का बोला हुआ संवाद याद आता है- ‘मैं कलम से इन्कलाब लाना चाहता हूं.’ उनकी एक ही पहचान थी लेखन और मैंने पिछले 20 सालों के दौरान उनको इससे अलग कोई बात करते नहीं देखा. एक दौर था, जब लगभग हर अखबार में उनके लेख छपते थे.

अखबारी लेखन में भी वे एक तरह की रचनात्मकता पैदा कर देते थे, सहज व्यंग्य से, आकर्षक शीर्षक से, या तीखी वैचारिकता से. एक बार उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार पर एक लेख लिखा जिसका शीर्षक रखा ‘हमारा दागिस्तान’. यह रसूल हमजातोव की किताब ‘मेरा दागिस्तान’ के साथ अद्भुत भाषिक प्रयोग था. मैंने उनको फोन करके कहा कि यह शीर्षक कमाल का है, तो वे कवियों की तरह आह्लादित हो गये.

वे पत्रकार थे, लेकिन उनमें वैचारिकता के अलावा कोई भी पत्रकारीय गुण नहीं था. ‘रविवार’ और ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से काम करने के बावजूद उन्होंने अपना अधिकतर पत्रकारीय जीवन स्वतंत्र लेखन में बिताया. लेखन उनके लिए रोज की लड़ाई थी और इस लड़ाई में वे वैचारिक रूप से हमेशा तने रहे. वे मूलतः साहित्यिक थे.

उनके दो उपन्यास प्रकाशित थे. ‘तुम्हारा सुख’ तो जैनेंद्र कुमार की शैली में लिखा गया था, जिसमें जीवन का दर्शन याद रह जाता है. उनका एक कविता संग्रह भी छपा था ‘पाप के दिन’. आंदोलन के दिनों में उनकी एकाध कविताएं प्रसिद्ध भी हुई थीं.

हम जैसे लेखकों के लिए राजकिशोर जी का सबसे बड़ा सुख उनका आतिथ्य था. वे दो पीढ़ियों के अनेक लेखकों, पत्रकारों के लिए चिर युवा मित्र की तरह थे, जिनसे फोन करके मिलने जाया जा सकता था और बतकही के साथ गर्मजोशी से भरे उनके आतिथ्य का सुख उठाया जा सकता था. देर तक उनसे वैचारिक बहसें की जा सकती थीं. मैं आम तौर पर बहुत चुप रहता था. उनके साथ बहस करके मैंने बोलना सीखा.

उन्होंने हमें बोलना सिखाया, लेखक के अभिमान के साथ सीना तानकर चलना सिखाया और सबसे अधिक अपने लेखन पर भरोसा करना सिखाया. लिखकर-बोलकर निरंतर अपनी मौजूदगी को दर्ज करवाते रहनेवाले राजकिशोर का इस तरह चुपचाप चले जाना खलता है. उन्हें नमन!

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