धैर्य, अनुशासन और जिम्मेवारी को समझें

II अनुज कुमार सिन्हा II हाल के दिनाें में दाे-तीन ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिस पर सार्वजनिक चर्चा अावश्यक है. यह राज्य आैर समाज दाेनाें के हित में है. आवश्यक इसलिए क्याेंकि ऐसी ही चर्चा से रास्ते निकलने की संभावना बढ़ती है. याद कीजिए तीन-चार दिन पहले राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में नर्स […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 6, 2018 7:46 AM
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II अनुज कुमार सिन्हा II
हाल के दिनाें में दाे-तीन ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिस पर सार्वजनिक चर्चा अावश्यक है. यह राज्य आैर समाज दाेनाें के हित में है. आवश्यक इसलिए क्याेंकि ऐसी ही चर्चा से रास्ते निकलने की संभावना बढ़ती है. याद कीजिए तीन-चार दिन पहले राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में नर्स आैर जूनियर डॉक्टर्स ने हड़ताल कर दी. दाे दर्जन से ज्यादा मरीज मारे गये. मजबूरी में सरकार ने मांगें मान ली, हड़ताल खत्म हाे गयी, लेकिन जिनकी जान गयी, उसके परिवार के अलावा किसी काे चिंता नहीं. रांची में फ्लाइआेवर के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया के दाैरान युद्ध स्तर पर बड़ी ताेड़-फाेड़. ये घटनाएं हमारे काम करने के तरीके, असंताेष, मनमाना रवैया, लापरवाही, जिद आैर संवेदनहीनता दर्शाती हैं.
पहले रिम्स की हड़ताल पर (जाे खत्म हाे गयी है). रिम्स में मरीजाें के लिए डॉक्टर्स, नर्स आैर अन्य कर्मचारी नियुक्त हैं. मरीज आते हैं. काेई ठीक हाेता है ताे किसी की माैत हाे जाती है. इसलिए किसी भी परिस्थिति में किसी भी डॉक्टर या नर्स के साथ न ताे मारपीट हाेनी चाहिए आैर न ही दुर्व्यवहार. इसके लिए सुरक्षाकर्मी तैनात हैं. यह उनकी जिम्मेवारी है कि मारपीट-दुर्व्यवहार करनेवालाें से सख्ती से निबटे.
अगर सुरक्षाकर्मी इसे नहीं राेक पाते ताे यह उनका निकम्मापन है. लेकिन अगर एक घटना घट गयी ताे तुरंत हड़ताल पर चले जाना क्या उचित है? यह आकस्मिक सेवा के तहत है. नर्स हड़ताल पर चली गयीं. लाठी लेकर मारपीट करने लगी. जूनियर डॉक्टर्स ने उनका साथ दिया. मारे गये मरीज. रिम्स में काैन जाता है-गरीब मरीज (अधिकांश). अगर पैसा ही हाेता ताे रांची में बड़े-बड़े अस्पताल नहीं चले जाते. हड़ताल में किसी के बच्चे की माैत हुई ताे किसी के पति या पिता की. यह अनुशासनहीनता है. हां, मारपीट की जांच हाेती आैर दाेषियाें पर कार्रवाई नहीं हाेती ताे आगे की कार्रवाई के लिए साेचते. इतने लाेगाें की माैत के लिए काैन जिम्मेवार है. यह असंवेदनशीलता का भी मामला है.
मरीजाें के परिजन गिड़गिड़ाते रहे, नर्सें हंसती रहीं या राेकती रहीं. एक बार ये नर्स साेचती कि इन मरीजाें में उनके परिवार का काेई हाे सकता है. हड़ताल ताेड़ने के पहले मांगें मनवाने के बाद भले ही ये नर्सें साेचती हैं कि उनकी जीत हुई है लेकिन यह उनकी हार है. मरीजाें के नजर में उनकी प्रतिष्ठा गिरी है. दरअसल ऐसी घटनाआें के बाद हड़तालियाें पर बड़ी कार्रवाई हाेती है लेकिन यह झारखंड है. कुछ नहीं हुआ. संभव हाे सरकार मजबूर हाे. रिम्स का काेई विकल्प भी नहीं है. लेकिन भविष्य के लिए ठाेस रणनीति बने ताकि ऐसी घटना फिर न घटे. साेचिए, अगर मरीजाें के परिजन भी लाठी-डंडा लेकर मैदान में उतर जाते आैर पुलिस प्रशासन एक-दाे घंटे के लिए चुप्पी साध लेता ताे क्या हाेता? भला हाे सीनियर डॉक्टर्स का,जिन्हाेंने संकट की इस घड़ी में भी काम किया, वरना स्थिति आैर खराब हाेती.
दूसरी घटना फ्लाइआेवर से जुड़ी है. फ्लाइआेवर जरूर बनना चाहिए, इसमें किसी काे आपत्ति नहीं है. 8-10 घंटे में 12 जेसीबी लगाकर तेजी से घराें-ढांचाें काे ताेड़ना यह बताता है कि प्रशासन आैर सरकार चाह ले ताे काेई भी काम असंभव नहीं है. इस बात का ख्याल जरूर रखना चाहिए कि जिसकी जमीन गयी, जिसके घर ताेड़े गये, जिनकी दुकानें ताेड़ गयीं, उनका मुआवजा-पैसा जल्द से जल्द मिल जाये. परेशानी उनकी ज्यादा है जाे रैयत नहीं हैं, लेकिन जिनकी दुकानें थीं (किराया पर).पैसा ताे रैयत काे मिलेगा, ये दुकानदार ताे सड़क पर आ गये. ऐसे लाेगाें के साथ भी न्याय हाेना चाहिए. अब आगे की बात.
जब तक फ्लाइआेवर बनेगा, पूरा शहर ट्रॉफिक के लिए अस्त-व्यस्त रहेगा. यह फ्लाइआेवर 10-15 साल पहले बन जाना चाहिए था. पहले बनता ताे शायद इतनी परेशानी नहीं हाेती. रघुवर दास सरकार के पास अभी डेढ़ साल का वक्त (सिर्फ) है. अगर रात-दिन काम कर चुनाव के पहले यह फ्लाइआेवर पूरा हाे जाता है (या 80 फीसदी भी बन जाता है) ताे सरकार के लिए यह बड़ी उपलब्धि हाेगी. सारा कुछ निर्भर करता है अफसराें पर, काम करनेवाली कंपनियाें पर. कड़ी मॉनिटरिंग पर. एक-एक दिन के विलंब हाेने से शहर का जाे हाल हाेगा, वह काेई साेच नहीं सकता. डर इसी बात का है कि जाे काम ढाई साल में का है, वह चार साल न लगा दे.याद कीजिए नामकुम में एक ब्रिज बनाने में कितने साल लग गये. रांची-टाटा राेड का क्या हाल है.तय कर लिया है कि काम नहीं करेंगे ताे किसकी मजाल कि काम करा ले. रामपुर (लाली) से विकास तक का रिंग राेड यूं ही पड़ा हुआ है. अफसर वैसे ही हैं, काम करनेवाली कंपनियां भी साेयी है.
मुख्यमंत्री के आदेश काे ये मानते नहीं. अफसराें काे अपना रवैया बदलना हाेगा. बेहतर हाेता सरकार किसी कर्मठ-जुनूनी आइएएस अफसर काे सिर्फ एक काम साैंपती-उन्हें इतने समय में (कम से कम) फ्लाइआेवर बनवा लेना है. रात-दिन उसी में लगे रहते. ऐसा न हाे कि अफसर बदलते रहे,मॉनिटरिंग करनेवाले बदलते रहे आैर यह फ्लाइआेवर पांच साल में भी नहीं बने. गाैर कीजिए इस फ्लाइआेवर से सिर्फ कांटाटाेली का समस्या का निदान हाेगा. रातूराेड का वही हाल रहेगा. हरमू का वही हाल हाेगा. जाे सख्त रवैया प्रशासन ने कांटाटाेली में दिखाया है, वैसे ही रवैये रातू राेड-हरमू के मामले में भी दिखाना हाेगा.
विलंब की आशंका इसलिए है क्याेंकि सरकारी विभागाें (अपवाद काे छाेड़ दें) अफसर-कर्मचारी साेये हैं. न काम करना है आैर न करने देंगे. सरकार बाेलते रहे, काेई फर्क नहीं पड़ता. एक उदाहरण देखिए. करमटाेली-बरियातू राेड पर मारवाड़ी आराेग्य भवन के पास बीच सड़क पर कई दिनाें से एक बड़ा गड्ढा है. राेज लाेग उसमें गिरते हैं. विभाग के निकम्मे अफसराें-कर्मचारियाें की नजर नहीं पड़ती. गड्ढ़ा ताे नहीं भरा, लेकिन वहां एक गेट लगा दिया. जिस भी विभाग की यह जिम्मेवारी है, उसके कर्मचारी-अफसराें में डर नहीं. जानते हैं कि खुद मुख्यमंत्री इसी रास्ते से अपने आवास से खेल गांव जायेंगे, इतना बड़ा गडढ़ा उन्हें दिखेगा, ताे कार्रवाई भी हाे सकती है. इतना जानने के बावजूद गड्ढ़े काे नहीं भरा. यह एक उदाहरण है लापरवाही का.
अगर ऐसे अफसर-कर्मचारी निजी कंपनी में काम करते, तब पता चलता कि कार्रवाई कैसे हाेती है. ऐसे लापरवाह, निकम्मे अफसराें काे अगर फ्लाइआेवर में लगा दिया जाये ताे राम भराेसा काम हाेगा. छाेटे-छाेटे काम लंबित हैं जिससे ट्रॉफिक जाम हाेता है. सड़कें चाैड़ी हाे गयीं लेकिन बीच सड़क पर बिजली आैर टेलीफाेन के खंभाें काे नहीं हटाया गया. क्या फायदा हुआ?
हर जगह मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव या सीनियर अधिकारी चेक नहीं कर सकते. जिसकी जिम्मेवारी है, उन्हें अपनी जिम्मेवारी निभानी हाेगी. अब सरकार के लिए भी यही चुनाैती है. चुनाव में सिर्फ डेढ़ साल है. काम नहीं दिखा ताे परेशानी हाेगी. सरकार निर्णय ले सकती है लेकिन लागू करने का काम ताे अधिकारियाें का है. अफसराें-कर्मचारियाें के लिए भी यही चुनाैती है. या ताे चुनाैती काे स्वीकार कर रिजल्ट दें या दंड पाने के लिए तैयार रहें. जनता काे भी इस उम्मीद में दाे साल धैर्य रखना चाहिए कि यह सब बेहतरी के लिए हाे रहा है. अगर आज कष्ट है ताे कल आराम मिलेगा. बाकी काम शासन-सरकार का है कि ऐसी व्यवस्था करे ताकि जनता काे कम से कम परेशानी हाे.
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