गर्मी तेरा मुंह काला

टीवी ऑन कीजिए तो अलग ही भारत नजर आता है. टीवी के बाहर पारा पचास को छूने में लगा है, जिससे पब्लिक बेदम और पसीने से नहायी हुई है. चारों ओर गर्मी से हैरान-परेशान आमजन किसी तरह तपती दोपहर निकालता है, तो रात की तपिश उसे सोने नहीं देती. लेकिन, बुद्धू बक्से पर विचरते प्राणी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 8, 2018 1:17 AM
टीवी ऑन कीजिए तो अलग ही भारत नजर आता है. टीवी के बाहर पारा पचास को छूने में लगा है, जिससे पब्लिक बेदम और पसीने से नहायी हुई है. चारों ओर गर्मी से हैरान-परेशान आमजन किसी तरह तपती दोपहर निकालता है, तो रात की तपिश उसे सोने नहीं देती. लेकिन, बुद्धू बक्से पर विचरते प्राणी कभी पसीने में नहीं दीखते.
कौन-से देश का टीवी है समझ नहीं आता! टीवी के प्रोग्राम में सजे-धजे कलाकार के क्या कहने, देखकर लगता है कि दिन में चार बार नहाते होंगे और इधर पीने को पानी की जुगाड़ हो जाये, तब कोई नहाने की सोचता है. कौन-सी चक्की का आटा खाते हैं रामगढ़ वाले ये बात की जगह पूछा जाये, कौन से नल का पानी आता है राम जाने? डायलॉग बदल गये हैं, चक्की से नल पर आ गये हैं.
टीवी पर आनेवाले न्यूज चैनल कम खुदा नहीं है. सभी दावा करते हैं कि वे जनता की आवाज है, जनता के सुख-दुख के साथी, पर इन न्यूज चैनल पर भी देश की चिंता में दुबले होते लोग गर्मी के मौसम में भी सूट-बूट में ठसे रहते हैं. चर्चारत चार लोग और एक एंकर, कुल जमा पांच लोग के लिए विशाल सेट पूर्णतः शीतल बनाया जाता है.
कितनी बिजली खर्च होती होगी इसकी कोई चिंता नहीं, लेकिन इस परिचर्चा में गरीबों की चिंता ऐसे की जाती है कि उनका बस चले तो खुद ही गरीब बन जाये. यही कुछ भरी गर्मी में आइपीएल के क्रिकेट मैच का विश्लेषण करते टीवी पर बैठे विशेषज्ञ भी कोट-जैकेट में दीखते हैं, जिसमें वे किसी सुंदरी के सामने आपने क्रिकेटीय ज्ञान के बखान में मैदान से ज्यादा कठिन स्थिति में लगते हैं, जबकि उन्हें तो किसी चीयर गर्ल के साथ क्रिकेट चर्चा में खुद की तौहीन समझना चाहिए पर पैसे के आगे ज्ञान की क्या बिसात?
फिर भी हमतो कहेंगे कि मीडिया में जो मर्जी आये दिखाइए कोई दिक्कत नहीं बस भीषण गर्मी में सर्दियों वाले कपड़े पहने लोग तो मत दिखाओ! इतना ही रहम हो जाये, बहुत मेहरबानी होगी. वो क्या है कि पसीने में तर-बतर बच्चे टीवी पर ऐसे अजूबे देखकर पूछते हैं, ‘इन अंकल को गर्मी नहीं लगती क्या?’ अब क्या जवाब दें? वैसे ही बिजली, पानी, बिल के कारण कूलर, पंखे मुंह चिढ़ा रहे हैं, ऊपर से आदम अवस्था में बैठे व्यक्ति को सजे-धजे लोग दिखाना भी किसी सजा से कम है क्या?
बच्चों को ऐसे उदाहरण से भी नहीं समझा सकते, ‘चिता और चिंता एक सामान’ दोनों में बंदे को सजा-धजा कर पेश किया जाता है. फिर इन बच्चों को कैसे समझाएं की देश, गरीबी, उद्योग, बिजली, पानी की चिंता में दिमाग को लगाये रखने के लिए इतने लबादे कसकर ओढ़ने पड़ते हैं, नहीं तो चिंता ठहर पाये क्या?
ये सभी दूरदर्शी लोग जानते हैं, चिंता की इंतहा में गुजरने से चिता में भी तब्दील हो सकते हैं! शायद इसलिए तैयार होकर बैठते हों. हम निगोड़े क्या जाने इतना दूरदर्शी चिंतन!

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