जरूरी है भाषाओं का संरक्षण

IIवरुण गांधीII सांसद, भाजपा fvg001@gmail.com पेरू में अमेजन घाटी में तौशीरो भाषा बोलनेवाला सिर्फ एक शख्स बचा है. इसी इलाके में रेजिगारो भाषा भी ऐसे ही अंजाम की ओर बढ़ रही है. पिछली दो सदियों में अंग्रेजी का जिन इलाकों में भी विस्तार हुआ, स्थानीय भाषाओं का सफाया हो गया. दो सदियों के दौरान ऑस्ट्रेलिया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 8, 2018 1:45 AM
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IIवरुण गांधीII
सांसद, भाजपा
fvg001@gmail.com
पेरू में अमेजन घाटी में तौशीरो भाषा बोलनेवाला सिर्फ एक शख्स बचा है. इसी इलाके में रेजिगारो भाषा भी ऐसे ही अंजाम की ओर बढ़ रही है. पिछली दो सदियों में अंग्रेजी का जिन इलाकों में भी विस्तार हुआ, स्थानीय भाषाओं का सफाया हो गया. दो सदियों के दौरान ऑस्ट्रेलिया में 100 स्थानीय भाषाएं खत्म हो गयीं. भारत में भी यही कहानी दोहरायी जा रही है. 1961 की जनगणना में 1,652 भाषाएं थीं. 1971 तक इनकी संख्या 808 रह गयी.
वर्ष 2013 की भारत की भाषाई सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक बीते 50 सालों में 220 से अधिक भाषाएं खत्म हो गयीं, जबकि 197 भाषाएं खात्मे के कगार पर हैं. विविधता में आस्था के बावजूद, अपनी बोलियों और भाषाओं को हम नहीं बचा पाये. फिर भी किसी भाषा की मौत पर, शोक की इस घड़ी ने हमें अफसोस जताने और कोई कदम उठाने के लिए प्रेरित नहीं किया.
नौकरशाही का एक मामूली-सा कदम भी किसी भाषा या बोली के सामूहिक संहार का कारण बन सकता है. औपनिवेशिक सरकार सन् 1871 में (जिसे 1952 में वापस ले लिया गया) आपराधिक जनजातियां कानून लायी, जिसके तहत कई जातियों को, जिनमें से अधिकांश खानाबदोश थीं, को जन्म से ही अपराधी करार दे दिया गया. इस कलंक के कारण ये जातियां अपनी सांस्कृतिक पहचान छिपाने और अपनी भाषा को दबाने पर मजबूर हुईं.
भारत सरकार ने हाल ही में कहा है कि, भाषा वह है जिसकी एक लिपि होती है और इस तरह सिर्फ बोली जानेवाली भाषा की जगह खत्म कर दी गयी. भारत में आधिकारिक रूप से 122 भाषाएं हैं, जो भाषाई सर्वेक्षण में गणना की गयी 780 से काफी कम हैं. इस विरोधाभास का मुख्य कारण यह है कि सरकार ऐसी भाषा को मान्यता नहीं देती, जिसे बोलनेवाले 10,000 से कम हों. फंडिंग भी एक बड़ा मुद्दा है. जर्मनी क्षेत्रीय भाषाओं के जिंदा रहने के लिए मदद देनेवाले कोर्सों पर 6.7 अरब डॉलर खर्च करता है.
खात्मे के खतरे का सामना कर रही 197 भाषाओं में सिर्फ दो (बोडो और मैतेई) को, सिर्फ इस कारण से कि इनको लिखने का एक तरीका है, भारत में सरकारी भाषा का दर्जा मिला हुआ है. ऐसे फैसले लेते समय इस बात की अनदेखी कर दी जाती है कि हमारे महान शास्त्र और महाकाव्य वाचन परंपरा से आते हैं, जिन्हें सदियों बाद लिखित रूप में लाया गया. ऐसे तरीकों में बदलाव करते हुए विभिन्न भाषाओं में वाचन परंपरा को जगह दिये जाने की जरूरत है.
भारतीय भाषा संस्थान (सरकार द्वारा 1969 में मैसूर में स्थापित) ने भारतीय भाषाओं पर शोध करने और उनका रिकॉर्ड तैयार करने के साथ ही कई शानदार काम किये हैं. भारतवाणी पोर्टल 121 भाषाओं में सामग्री का प्रकाशन करता है और यह अब ऑनलाइन कोर्स की ओर जा रहा है. दिसंबर 2017 में छपी एक रिपोर्ट में केवी भारद्वाज कहते हैं कि आगे चुनौतियां हैं- भारतीय भाषाओं के डिजिटाइजेशन में प्रूफ रीडिंग के भारी काम में देरी के साथ ही ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकॉग्निशन का तरीका आदिमकालीन है.
भाषाओं को बचाने के लिए एक सफल तरीका है- उस भाषा में पढ़ानेवाले स्कूलों को बढ़ावा देना. सुभाशीष पाणिग्रही ने जून 2017 में कहा था, हमें एक नये प्रोजेक्ट टाइगर की जरूरत है- खात्मे के कगार पर पहुंच चुकी भारतीय भाषाओं का संरक्षण और विकास के लिए विशाल डिजिटल प्रोजेक्ट शुरू करना होगा- ऐसी भाषाओं का ऑडियो-विजुअल डाक्यूमेंटेशन करना जरूरी है. कहानियां, लोककथाएं और इतिहास के संग्रहण से अच्छी शुरुआत हो सकती है.
जाने-माने विद्वान शिव विश्वनाथन ने इस साल मार्च में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ऐसे आंदोलन में उच्चारण लाइब्रेरी बनाने के लिए अंतर-भाषा ओपेन सोर्स टूल्स का इस्तेमाल किया जा सकता है. ग्लोबल लैंग्वेज हॉट स्पॉट जैसे बहुत शानदार काम करनेवाले संगठनों के मौजूदा कामकाज का इस्तेमाल डॉक्यूमेंटेशन प्रयासों में किया जा सकता है.
इसी प्रकार सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के तहत खर्च की जानेवाली पांच फीसदी राशि को भाषाओं और दस्तकारी को बचाने, डाक्यूमेंटेशन और एक्सेसिबिटी टूल्स के निर्माण के लिए खर्च किये जाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. ऐसे डाटा बेस को बाद में भाषाई शोध, एक ही परिवार की भाषाओं में अंतर-संबंध स्थापित करने (उदाहरण- उड़िया का हो से, मुंडा, खड़िया का कुई से) के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
विशिष्ट भाषाओं का इस्तेमाल करनेवाले युवाओं को संवाद, आदान-प्रदान, एप्स और पॉडकास्ट का इस्तेमाल करते हुए भाषा का संरक्षण और विकास करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है.लेकिन अंततः भाषाओं का संरक्षण डाक्यूमेंटेशन से नहीं, बल्कि लोगों द्वारा इनका नियमित रूप से इस्तेमाल किये जाने से होता है.
सरकार की मदद तो जरूरी है, लेकिन भोजपुरी का चलन बढ़ने में या मेहली (महाराष्ट्र), सिदी (गुजरात) और माझी (सिक्किम) का चलन घटने में संस्थागत समर्थन (अगर कोई है तो भी) की भूमिका बहुत मामूली रही. इनका पुनरुत्थान इनको बोलनेवालों के लिए आजीविका का प्रबंध सुनिश्चित करने से ही संभव है.
भारत भाषाओं की दृष्टि से सबसे समृद्ध देशों (पापुआ न्यूगिनी में करीब 1,100 भाषाएं हैं, जबकि इंडोनेशिया में 800 से अधिक भाषाएं हैं) में से एक है. एक भाषा के खत्म होने पर इसके सांस्कृतिक मिथकों और रस्मो-रिवाज के खात्मे के साथ उसके पूरे संसार का नुकसान है. पत्रकार डेविड लाइमलसावमा ने दिसंबर 2013 में लिखा था कि किसी भाषा या का बोली का संरक्षण इसलिए भी जरूरी है, ताकि हमारी विरासत जिंदा रहे. उन भाषाओं की उपेक्षा करना, जिसे बहुत थोड़े लोग बोलते हैं, ठीक नहीं है- हिंदी जैसी भाषा में 126 भाषाओं के शब्द समाहित हैं. ऐसी जड़ों को काट देने से बड़ी भाषा को भी नुकसान होगा.
उम्मीद अभी भी जिंदा है- बीते दो दशक में भील जैसी भाषा को बोलनेवालों की संख्या में 85 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. हमें एक नयी सामाजिक संविदा की जरूरत है, जिसमें हम डिजिटल माध्यमों का इस्तेमाल भाषा के बोलने और लिखने के तरीके को बचाने के उपाय के तौर पर करें. ऐसे उपायों से भारत की बहुलता की परंपरा को नया जीवनदान मिलेगा.
हमें याद रखना होगा कि यूरोप में जातीय-राष्ट्रवाद (उदाहरण- बास्क में कैटालोनिया) के पीछे आंशिक रूप से भाषा से जुड़ी शिकायतें भी हैं. हम जैसे-जैसे आधुनिक होते जायेंगे, हमें जरूर याद रखना होगा कि हमारा लोकतंत्र ऐसे लोकाचार का विकास करे, जो न सिर्फ मानकीकृत या एकात्मवादी हो, बल्कि सभी रूपों में भाषाई बहुलता को भी स्वीकार करता हो.
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