।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
परिणामों की आंधी का गुबार थम रहा है, तो यह जरूरी है कि इसके पीछे के कारकों पर एक मारक नजर डाली जाये. क्योंकि परिणामों ने देश को बदल कर रख दिया है. हमारी प्रणाली संसदीय है, पर चुनाव राष्ट्रपति प्रणाली जैसे हो गये हैं. अब तक कांग्रेस एक पाले में होती थी, बाकी दूसरे पाले में. बदलाव की प्रक्रिया तभी शुरू हो गयी, जब कांग्रेस ने गंठबंधन के दौर को स्वीकारा. 2014 में पहली बार भाजपा एक पाले में है और कांग्रेस बाकियों के साथ दूसरे पाले में. अब तक कांग्रेस पूरे देश में स्वीकार्य पार्टी बन कर मटकती थी और भाजपा समेत दूसरे दल खित्तों में लोकप्रिय थे. अब भाजपा पूरे देश में लोकप्रिय है और कांग्रेस खित्तों में है. मामला पार्टी से लीडर पर चला गया है. पार्टी तो एक खयाल है, खुशबू है, जिसे महसूस कर सकते हैं, छू नहीं सकते. खुशबू अच्छी चीज है पर सौंदर्य तो फूल ही लाता है. खुशबू नकली भी हो सकती है. फूल ही प्रमाण है उसके असली होने का. कमल के पूरे भारत में फैल जाने का कारण खुशबू नहीं, फूल है.
जो यह कहते हैं कि भाजपा ने मोदी को ब्रांड बना दिया और यह जीत मार्केटिंग की विजय है, यह भूल जाते हैं कि माल अच्छा हो या बुरा, आदमी छूकर, देख कर खरीदना चाहता है. इंटरनेट पर खरीदारी के दौर में भी लोग सामान की तसवीर ही सही, देखते हैं खरीदने से पहले. भौतिकवादी दुनिया में चीजें चेक कर खरीदते हैं लोग. यह बीजेपी को बेहतर समझ आयी. उन्होंने नरेंद्र मोदी को सामने रखा. लोगों ने हाथोंहाथ लिया. कांग्रेस ने राहुल को आगे तो किया, पर बताया नहीं कि यही माल मिलेगा. बैनरों, पोस्टरों में युवा जोश के नारे के साथ राहुलजी की बड़ी-बड़ी तसवीरें लगीं पर यह नहीं बताया कि वही कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. तीसरा मोर्चा तो बनने के पहले ही बिखर गया, क्योंकि वह जनता को बता नहीं पाये कि कीमती वोट के बदले उन्हें क्या मिलेगा. पहले खरीदो फिर माल दिखाऊंगा, उनकी दुकान कैसे चलती.
परिणाम बताते हैं कि जिन्होंने माल दिखाया, उनका खूब बिका. मोदी ने देश भर में दिखाया. खुद को प्रधानमंत्री बताया. लोगों को सीधा संदेश दिया कि कमल का बटन दबाया, तो उनका वोट सीधे मोदी को मिलेगा. वह खुद को मोदी कहने लगे. हर जगह पहुंचे. रैली से, विज्ञापन से, टीवी पर भाषण से, 3डी अवतार में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक सीधे पहुंचे, सीधे संदेश के लिए. ममता बंगाल भर में खुद को आगे कर बढ़ीं. यह बताया कि मुङो समर्थन दो, मैं तुम्हारा उम्मीदवार हूं. जयललिता और नवीन पटनायक ने यही किया. कोई झोल नहीं. कुछ परदे में नहीं. ममता एनडीए और यूपीए दोनों में रह चुकी हैं, पर जब से अकेली लड़ रही हैं, दोनों में से किसी को नहीं बख्शा. जया और नवीन ने भी वही किया है. उनका सीधा संदेश था, ना बीजेपी ना कांग्रेस. चाल, चरित्र और चेहरा तीनों सामने. जिन्होंने मिश्रित संदेश दिये, उनकी मिट्टी पलीद हो गयी. मायावती और मुलायम सिंह जब यूपीए सरकार की निंदा करते, तो उनके भाषणों में ईमानदारी कहां से आती. आखिरकार सरकार उन्हीं के समर्थन से चल रही थी. पब्लिक सब जानती है, तो यह भी जान गयी कि इनको वोट देने का मतलब उसी सरकार को वोट देना है, जिससे मुक्ति चाहिए.
जनता यह निश्चित कर लेना चाहती थी कि वोट किसको जायेगा. उसका नाम क्या है, जो इस देश पर शासन करेगा. उनको वह चेहरा चाहिए था. राज ठाकरे ने लोगों से मोदी के नाम पर वोट मांगा, तो लोगों ने उनकी सेना को वोट नहीं देकर शिवसेना को वोट दिया, क्योंकि शिवसेना मोदी के साथ थी. कान पीछे से क्यों पकड़ना, सीधे क्यों नहीं. वोट या तो मोदी के नाम पर पड़ते, या राहुल के नाम पर. राहुल का नाम कांग्रेस ने ही आगे नहीं किया, तो मोदी एक तरह से अकेले रह गये मैदान में. चाल, चरित्र और चेहरा सामने. कुछ भी छिपा नहीं. गुजरात के दंगे के दाग और गुजरात के विकास का मॉडल. कोई परदा नहीं. खरीदोगे तो यही मिलेगा. 2009 में कांग्रेस ने मनमोहन का चेहरा सामने रखा था. उनकी कमजोरियां, उनकी कोशिशें और उपलब्धियां सामने थीं. लोगों ने मनमोहन पर हामी भर दी थी. इस बार ना चेहरा था और उपलब्धियां, तो तौबा-तौबा. जो था तो बस पार्टी के सिद्धांत. सिद्धांतों को खरीदार नहीं मिलते. कांग्रेस राहुल को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने में अनिच्छा दिखा रही थी और राहुल बनने में अनिच्छा दिखा रहे थे. कांग्रेस किसी के नाम पर नहीं मांग रही थी. बीजेपी ने मोदी के नाम पर मांगा. मिला. किसके नाम पर मांगते हैं, यह जरूरी है. कांग्रेस को यह समझ नहीं आया पर भिखािरयों तक को मालूम है. वह यूं ही नहीं मांगते. वह भगवान के नाम पर मांगते हैं. अल्लाह के नाम पर दे दे बाबा. और यह भी बताते हैं कि बदले में क्या मिलेगा. जैसे कि तुम्हारे बच्चे बड़े आदमी बनें.