तो पृथ्वी बची रहेगी
कविता विकास लेखिका बीते दिनों पर्यावरण की चिंता में आम से खास लोगों को लगे देख एक बार फिर पर्यावरण संरक्षण के लिए जी-तोड़ मेहनत करनेवाले सुंदरलाल बहुगुणा जी के चेतावनी के स्वर याद आते हैं, ‘विराट को बांधने और असाध्य को साधने पर तुले लोगों! प्रकृति पर विजय पाने की अपनी आदिम लालसा से […]
कविता विकास
लेखिका
बीते दिनों पर्यावरण की चिंता में आम से खास लोगों को लगे देख एक बार फिर पर्यावरण संरक्षण के लिए जी-तोड़ मेहनत करनेवाले सुंदरलाल बहुगुणा जी के चेतावनी के स्वर याद आते हैं, ‘विराट को बांधने और असाध्य को साधने पर तुले लोगों! प्रकृति पर विजय पाने की अपनी आदिम लालसा से बाज आओ.’ उन्होंने बहुत पहले ही ताड़ लिया था कि मनुष्य की समझ और प्रकृति के रहस्य का कोई तालमेल नहीं है. प्राकृतिक आपदाओं के मूल कारणों में उन भावनाओं का विखंडित होना सर्वोपरि है, जिसमें जन, जंगल और जीविष का समन्वय है. भूमंडलीकरण और वैश्विक स्तर पर बढ़ता बाजारवाद धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों पर हावी हो गया है.
जब पर्यावरण की बात उठती है, तो ज्यादातर जंगलों की कटाई को ही इससे जोड़कर देखा जाता है, जो एक बड़े विचार का छोटा सा हिस्सा है. प्रदूषण और कार्बन डाइऑक्साइड की प्रचूरता ओजोन परत को प्रभावित करती है. अत्यधिक गर्मी से हिमखंड पिघल रहे हैं और कहा जाता है कि अगली त्राहि ब्रह्मांड के सागर में विलीन हो जाने से होगी.
नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को रोककर बांध बनाना, पनबिजली परियोजनाओं का विस्तार, विस्फोटकों का प्रयोग जिसमें पहाड़ और चट्टान जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं तथा जंगलों की व्यापक कटाई, जिसमें जलीय चक्र भूगर्भीय स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, प्राकृतिक आपदाओं के कारण हैं और पर्यावरण के एक बड़े परिप्रेक्ष्य को बतलाता है.
प्रकृति अत्यंत सहज और सरल है. यह न तो जटिलताओं का उद्गम स्थल है और न उन्हें निर्मित करती है. बच्चों को बचपन से ही अपने पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ अपने परिवेश की स्वच्छता पर पाठ पढ़ाना होगा. उन्हें बतलाना होगा कि अगर आप पेड़ लगाओगे तभी फल खाओगे. पेड़ लगाने के उद्यम को सीखना होगा, तभी फल खाने की मांग करनी होगी. हम स्वच्छता देना नहीं जानते पर लेना चाहते हैं.
सेवा-क्षेत्र के विस्तार ने भारतीय अर्थव्यवस्था में एक नया ज्ञान गढ़ा है, जो देवता को महज मूर्तिकला और मंदिर को सिर्फ वास्तुशिल्प मानता है.
यह ज्ञान नदियों को महज पानी का सोता, पहाड़ को रास्ते की बाधा और जंगल को सभ्यता का सीमांत बतलाता है. हमारी संस्कृति पर यह नया ज्ञान एक प्रहार है, जो सामने के पेड़, पहाड़ या किसी भी जिंदा संस्कृति को पैसे की खनक में बदल देना चाहता है.
छोड़ प्रकृति की माया, छोड़ संवृद्धि की छाया, यह कैसा राज-भोग आया कि विलासी मन खींचा चला आया! हम यह जानते हैं कि अपना सुख-चैन खोकर हमने अपने दुर्दिन को ही निमंत्रण दिया है. इस बात से सभी को सचेत करना होगा कि ऐसे किसी भी व्यावसायिक लाभ के लिए काम करनेवाली संस्था के लिए समवेत स्वर में आवाज उठाकर विरोध करना भी हमारे ही अधिकार-क्षेत्र में आता है. पर्यावरण सुरक्षित होगा तो पृथ्वी बची रहेगी और तभी हमारी सभ्यता भी.