बिरसा मुंडा की शहादत के बाद

II डॉ अनुज लुगुन II सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in नौ जून, 1900- बिरसा मुंडा की शहादत की तारीख. एक ऐसी तारीख जो न केवल आदिवासी समाज के लिए, बल्कि विश्व के जनइतिहास में एक ऐसी तारीख है जो उत्पीड़ित समुदायों और अस्मिताओं के अधिकार और गरिमा की लड़ाई को ऐतिहासिक आधार […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 12, 2018 7:07 AM

II डॉ अनुज लुगुन II

सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

anujlugun@cub.ac.in

नौ जून, 1900- बिरसा मुंडा की शहादत की तारीख. एक ऐसी तारीख जो न केवल आदिवासी समाज के लिए, बल्कि विश्व के जनइतिहास में एक ऐसी तारीख है जो उत्पीड़ित समुदायों और अस्मिताओं के अधिकार और गरिमा की लड़ाई को ऐतिहासिक आधार देती है.

जिस साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता था, उसके सामने बिना समझौतों और समर्पण के किया गया बिरसा मुंडा का ‘उलगुलान’ न तो आर्थिक हिस्सेदारी के लिए, न ही अपने लिए सुविधाओं या वजीफा के लिए किया गया विद्रोह था, न ही यह पुनरुत्थानवादी था. उनका उलगुलान और उनकी शहादत आत्मनिर्णय के उस विचार पर हुई थी, जिसमें ‘अबुआ दिसुम रे अबुआ राईज’ अर्थात् ‘हमारे देश में हमारा राज’ की संकल्पना थी.

यह आदिवासी समाज की समाज व्यवस्था, जीवन दर्शन, संस्कृति और स्वशासन की आकांक्षाओं का स्वाभाविक प्रतिफलन था. आगे चलकर बिरसा मुंडा और ‘उलगुलान’ उत्पीड़ित आदिवासी समुदायों की अस्मिता और उनके अधिकार संघर्ष के प्रतीक बने. आजादी के बाद की संसदीय राजनीति ने अपने हित के लिए इस प्रतीक का खूब इस्तेमाल किया, बावजूद इसके आदिवासी समाज अपने आत्मनिर्णय के अधिकार से काफी दूर है.

साल 1908 में बना छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम बिरसा आंदोलन का ही परिणाम था, जिसे आजादी के बाद भी संविधान में शामिल किया गया. आदिवासी हितों के लिए पांचवीं-छठी अनुसूची, पेसा अधिनियम इत्यादि प्रावधान किये गये. संसदीय राजनीति में उनके मत का इस्तेमाल करते हुए उनके हितों की बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं, लेकिन आदिवासी समाज क्रमशः अस्तित्व संकट में फंसता चला गया.

आमतौर पर भारत में आदिवासी प्रश्नों को आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में देखा गया, इस वजह से उनका आत्मनिर्णय, उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टता और पहचान उपेक्षित होती रही. बहुमत आधारित संसदीय राजनीति में संख्या के आधार पर कोई दबाव न बना पाने के कारण आदिवासी प्रश्न हमेशा नजरंदाज होते रहे.

मुख्यधारा की राजनीति में ‘आदिवासी राजनीति’ जैसी कोई चीज खड़ी नहीं हो पायी, जिससे राष्ट्रीय फलक पर कोई आदिवासी नेतृत्व उभर नहीं पाया. इसी के प्रत्युत्तर में अपनी अस्मिता के आधार पर आदिवासियों के राजनीतिक संगठन बने. जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में ‘आदिवासी महासभा’ संसदीय राजनीति के फलक पर मुखरता के साथ उभरकर आया, लेकिन यह बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की कूटनीति का शिकार होकर प्रभावहीन हो गया. इसके बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा और झारखंड पार्टी जैसे बड़े राजनीतिक दल बने.

कई और आदिवासी संगठनों का गठन हुआ. अपनी अस्मिता की मांग पर गठित आदिवासियों की संसदीय राजनीति भी राष्ट्रीय राजनीति में कोई विशेष दबाव नहीं बना सकी है. वे या तो अपने क्षेत्र विशेष तक सिमट कर रह गये, या अवसरवाद का शिकार होकर अपनी पहचान से दूर होते चले गये. नतीजा, मौजूदा संसदीय राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर आदिवासी प्रतिनिधित्व गायब है.

दरअसल हमारी संसदीय राजनीति पूंजीवादी राजनीति है, जो आदिवासी समाज के स्वभाव के विपरीत है. बड़ा सवाल है कि औपनिवेशिक समय में लड़ी लड़ाईयों और शहादतों के विचार का प्रतिफलन आधुनिक समाज में कैसे हो? कैसे आदिवासी समाज का आत्मनिर्णय बृहद भारतीयता के मंच पर अभिव्यक्त हो ?

आदिवासियों का सशस्त्र विद्रोह नक्सलवाद के रूप में या पत्थलगड़ी जैसे दूसरे ‘रेडिकल’ रूपों से जुड़ना उन तमाम राजनीतिक नीतियों और निर्णयों की अक्षमता का सूचक है, जिसने आदिवासी आत्मनिर्णय को अाघात पहुंचाया है. पूंजीवादी विकास मॉडल और उसके समाजार्थिक मूल्यों का आदिवासी जीवन पर सीधा हमला हुआ है.

इसने उस विमर्श को ही असामाजिक और अप्रासंगिक बना दिया है, जो आदिवासी समाज की ओर से उठते हैं. उनका विस्थापन, पलायन, जल, जंगल और जमीन का मुद्दा मुख्यधारा के लिए संवेदना के प्रश्न ही नहीं हैं. कथित ‘विकास’ के आक्रमण ने ‘संवेदना’ को संसदीय राजनीति से ही निर्वासित कर दिया.

हुल या उलगुलान महज निजी आकांक्षाओं या तात्कालिक घटनाओं की त्वरित प्रतिक्रिया नहीं थी. बिरसा का उलगुलान तो आदिवासी दार्शनिक भावभूमि की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति थी. ऐसी भावभूमि जिसकी बुनियाद में वर्चस्व का प्रतिरोध और सहजीविता थी. किसी दार्शनिक भावभूमि पर आधारित इतिहास के विचार का पोषण उसी भावभूमि की नींव पर होता है. बिरसा मुंडा की शहादत के बाद आदिवासी समाज को उनकी दार्शनिक भावभूमि नहीं मिली.

पिछले सौ वर्षों में आदिवासी समाज जहां एक ओर अस्तित्व संकट से जा घिरा है, वहीं दूसरी ओर उसका एक हिस्सा धीरे-धीरे मध्यवर्ग के रूप में भी उभरने लगा है. लेकिन नौकरी पेशे से जुड़े लोगों, शिक्षकों, अधिकारियों, बुद्धिजीवियों का वर्ग बिना दार्शनिक भावभूमि के असमंजस की स्थिति में है.

वह अपने पुरखों के संघर्ष को एक तिथि के रूप में याद रखे या मूल्य के रूप में? राष्ट्रीय राजनीति और अस्मिता की राजनीति भी उनकी दार्शनिक भावभूमि को अब तक आकार नहीं दे सकी है. वर्तमान में सभी राजनीतिक दल बिरसा मुंडा को अपने बैनर में जगह देते हैं, उनके नाम पर कार्यक्रम करते हैं. लेकिन क्या बिना दार्शनिक भावभूमि के आदिवासी आत्मनिर्णय संभव है? वोट जुटाने और सीट बचाने की राजनीति में कौन बिरसा शहादत के विचार का वाहक होगा?

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