पिछले कुछ दिनों से भीड़ द्वारा पीट-पीटकर लोगों की जान लेने का खौफनाक सिलसिला जारी है. तमिलनाडु में अप्रैल में एक पुरुष और मई में एक औरत की हत्या हुई. मई में ही आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में अनेक ऐसी वारदातें हुईं. इस महीने की आठ तारीख को असम और महाराष्ट्र में दो-दो युवकों को भीड़ ने मार डाला, तो 13 तारीख को झारखंड में दो लोगों की जान ले ली गयी. कुछ अन्य राज्यों से भी जानलेवा हमलों की खबरें हैं.
शुरुआती जांचों की मानें, तो इन सभी घटनाओं में व्हाॅट्सएप के जरिये फैलायी जा रही अफवाहों की भूमिका है, जिनमें कहा जा रहा है कि इलाके में बच्चे या मवेशी चुरानेवाले गिरोह सक्रिय हैं.
यह हमारे वर्तमान की बड़ी विडंबना है कि सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन जैसी सूचना, संपर्क और संवाद की तकनीकें अफवाह और फर्जी खबरें फैलाने का साधन बनती जा रही हैं. हिंसक भीड़ की आदमखोर प्रवृत्ति पहले भी जाहिर होती रही है, पर व्हाॅट्सएप जैसे सुलभ साधनों से अफवाहों को फैलाने और भीड़ को जुटाने में सहूलियत कहीं ज्यादा बढ़ गयी है
हालांकि, अनेक राज्यों में पुलिस-प्रशासन ने लोगों को जागरूक करने की मुहिम चलायी है, पर इसका असर बहुत कम है. यह समझना भी जरूरी है कि गलत खबरों या अफवाहों पर अंकुश लगाने तथा लोगों को उनपर भरोसा करने से रोकने का काम अकेले पुलिस या प्रशासनिक महकमे के बस की बात नहीं है. लेकिन, यह भी सच है कि गलत और खतरनाक इरादों से फैलायी जा रही अफवाहों के लिए दोषी लोगों पर समुचित कार्यवाही करने में प्रशासनिक तंत्र लापरवाह रहा है.
परंतु, समाज के सचेत नागरिकों और संगठनों को भी अपनी भूमिका निभानी होगी. यह जरूरी है कि लोग ऐसी बातों को आगे न बढ़ायें और तुरंत पुलिस को सूचित करें. यह संतोष की बात है कि अनेक जगहों पर प्रशासन सोशल मीडिया पर नजर रखे हुए है.
दंगे-फसाद भड़काने से लेकर किसी व्यक्ति के निजता हनन तक की अफवाहों के कारण हिंसा और अपराध से नागरिक लगातार जूझते रहे हैं. अफवाहों को रोकने की चुनौती कितनी बड़ी है, इसे कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है. पिछले साल मई तक 16 करोड़ से अधिक भारतीय व्हाॅट्सएप का इस्तेमाल कर रहे थे. फेसबुक और अन्य प्लेटफॉर्मों के उपभोक्ता भी करोड़ों में हैं. अभी देश में 25 करोड़ स्मार्ट फोन हैं. साल 2020 तक यह संख्या 60 करोड़ तक जा सकती है.
तेज प्रतिस्पर्द्धा के चलते इंटरनेट डेटा लगातार सस्ता हो रहा है तथा सेवाएं भी बेहतर हो रही हैं. जून, 2016 से जनवरी 2017 के बीच आंकड़े इंगित करते हैं कि इस दौरान सोशल मीडिया पर समय बिताने में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. ऐसे में सरकार से लेकर स्मार्ट फोन लिये हर व्यक्ति को चौकस और जिम्मेदार होने की जरूरत है. लगातार होती हत्याओं के इस भयावह माहौल में भी इतनी उम्मीद तो की जा सकती है कि हम खुद को एक आदमखोर समाज बनने से रोकने के लिए हर मुमकिन कोशिश करेंगे.