कांग्रेस नेतृत्व के लिए आगे की राह

(आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार) नरेंद्र मोदी के हाथों भारी पराजय के बाद सोनिया गांधी और राहुल गांधी को क्या करना चाहिए? इस प्रश्न पर विचार से पहले यह देखा जाए कि अब तक उन्होंने क्या किया है. हार को स्वीकार करने में वे अशिष्ट दिखे, विशेषकर पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का अंदाज शर्मनाक था. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 25, 2014 5:43 AM

(आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार)

नरेंद्र मोदी के हाथों भारी पराजय के बाद सोनिया गांधी और राहुल गांधी को क्या करना चाहिए? इस प्रश्न पर विचार से पहले यह देखा जाए कि अब तक उन्होंने क्या किया है. हार को स्वीकार करने में वे अशिष्ट दिखे, विशेषकर पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का अंदाज शर्मनाक था. उनके इस बयान- ‘कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है’- से उन लोगों के आकलन की पुष्टि हुई कि वे चुनावों को लेकर अगंभीर थे. कांग्रेस अध्यक्ष और यूपीए की मुखिया सोनिया गांधी बिना नरेंद्र मोदी का नाम लिये कुछ शब्द बुदबुदायीं और गायब हो गयीं. उनकी पार्टी बैठक में पुराना माहौल ही था. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश को उनके दरबारियों ने ठुकरा दिया. हालांकि, यह जानना दिलचस्प होगा कि किन उच्चाधिकारियों को सोनिया ने अपना इस्तीफा भेजा था.

अब उन्हें क्या करना चाहिए? वे व्यक्तिगत रूप से चार चीजें कर सकते हैं. चुनावों में हार के विश्लेषण और राज्य इकाइयों के पुनर्गठन की चर्चाएं छोड़ दें, क्योंकि ऐसा कांग्रेस में कभी नहीं होगा. सबसे पहले तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस और उसके मतदाताओं को यह संदेश देना होगा कि वे यह मानते हैं कि यह हार बहुत बड़ी है. अभी तक उन्होंने ऐसा नहीं किया है और अगर उन्हें इस जबरदस्त पराजय का अहसास अगर है भी, तो उन्होंने इसे जाहिर नहीं किया है.

दूसरी बात यह है कि उन्हें संसद में अपनी उपस्थिति सुदृढ़ करनी होगा. 10 वर्षो तक सोनिया गांधी प्रधानमंत्री का पद लेने से मना करती रहीं, जो ठीक भी था, क्योंकि वे बौद्धिक रूप से इस पद के योग्य नहीं थीं, जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है. लेकिन उन्होंने संसद में सक्रियता दिखाने में भी बहुत रुचि नहीं दिखायी. राष्ट्रपति बनने से पहले तक प्रणब मुखर्जी लोकसभा के नेता रहे थे. सोनिया ने संसद में बहुत कुछ नहीं किया और सरकार व पार्टी के बचाव या कभी-कभी विपक्ष पर हमले की जिम्मेवारी दूसरे नेताओं पर थोप दी थी. राहुल गांधी तो अक्सर कामकाज से अनुपस्थित रहे थे. यह रवैया अब बदलना चाहिए. लोकसभा ही वह जगह है, जहां से वे अपनी पार्टी की छवि में परिवर्तन ला सकते हैं. 543 सदस्यों वाली लोकसभा में चार दर्जन से भी कम कांग्रेस सांसदों की संख्या उन्हें हतोत्साहित अवश्य करेगी, पर उन्हें खड़ा होना पड़ेगा.

तीसरी चीज यह है कि उन्हें अपने विचारों और सिद्धांतों को स्पष्ट कर उसे अपने संभावित मतदाताओं तक ले जाना होगा. मेरे विचार से कांग्रेस के तीन मूल सिद्धांत हैं- समाज में बहुलतावाद (सेकुलरिज्म शब्द को छोड़ दें, जो बहुतों के लिए अस्वीकार्य हो चुका है), अर्थव्यवस्था का उदारीकरण और राज्य द्वारा कमजोर वर्गो के हितों की रक्षा पर जोर.नरेंद्र मोदी की जीत का विश्लेषण कर रहे अखबारों के संपादकीय लेखों से कांग्रेस के लिए यह सीख लेना गलत होगा कि उसकी नीतियां आम तौर पर सही नहीं थीं. वे नीतियां ठीक थीं, लेकिन उन्हें ठीक से लागू नहीं किया गया था, और उनका प्रबंधन अक्षम था. कांग्रेस के ये तीनों सिद्धांत निर्विवाद हैं और उन पर जोर देना पार्टी के लिए फायदेमंद होगा, क्योंकि वे सिद्धांत उचित हैं. शायद गांधी परिवार को इस बात का बखूबी पता है. लेकिन अगर ऐसा है भी तो उनके बहुत सारे समर्थकों को इसकी जानकारी नहीं है. सोनिया व राहुल को इस संदेश को गंभीरता के साथ लोगों को बीच ले जाना शुरू कर देना चाहिए. जब भी वे भाषण दें, तो इन तीन सिद्धांतों का उल्लेख अवश्य करें.

विपक्ष को शोर-गुल का मंच बना देने की भारतीय परंपरा के बावजूद उन्हें उदारीकरण के मसले पर नरेंद्र मोदी का साथ देना चाहिए. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करते समय भारतीय जनता पार्टी नकारात्मक और नकारा थी. कांग्रेस पार्टी को भी इस मामले में क्षुद्रता से बचना चाहिए.

चौथी चीज जो राहुल गांधी और सोनिया गांधी को करनी चाहिए, वह है उनकी बड़ी योजनाओं को वापस लेने से कोशिश का पुरजोर विरोध. ऐसा सुनने में आ रहा है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को सीमित किया जा सकता है. खाद्य सुरक्षा और शिक्षा के अधिकार के कानूनों को लागू करने में ढिलाई बरती जा सकती है. नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से आधार कार्ड परियोजना के पीछे पड़ेंगे, जिसे वे बांग्लादेशियों के लिए बनायी गयी योजना कह कर घोर आलोचना करते रहे हैं.

संसद में विरोध करने की कांग्रेस की धार लोकसभा में कुंद हुई है, लेकिन उसके पास राज्यसभा का मंच है, और सबसे महत्वपूर्ण, मीडिया है. दोनों गांधी अपने मंत्रियों और चापलूसों की आड़ लेते रहे हैं, जो कि सत्ता में रहते हुए तो एक हद तक ठीक था. लेकिन, अब जब वे सत्ता में नहीं हैं और उनका आभामंडल काफी हद तक क्षीण हो चुका है, उन्हें यह दिखाना होगा कि जिस तरह से भारत में राजनीति करने की जरूरत है, उस तरह से वे राजनीति कर सकते हैं.

मोदी जो भी करते हैं, उसमें वे बड़ी रुचि दिखाते हैं और यही बात उनके प्रति आकर्षण पैदा करती है. सोनिया और राहुल की विमुखता ठीक इसके विपरीत है. जीत की स्थिति में यह एक गुण हो सकता है, किंतु अब यह बिल्कुल वितृष्णात्मक हो सकता है, जब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सोनिया और राहुल गांधी बस समय काट रहे हैं और सत्ता में वापस लौटने का इंतजार कर रहे हैं.

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